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________________ निर्वाण उपनिषद अर्थ नहीं है कि जो घर में रहता है। गृहस्थ का अर्थ है, जो सुरक्षा का घर खोजता रहता है, कहीं भी असुरक्षित नहीं हो सकता। एलन वाट ने एक अदभुत किताब लिखी है। उस किताब का नाम है, विजडम आफ इनसिक्यूरिटी, असुरक्षा की बुद्धिमत्ता। संन्यास का अर्थ ही यही है। संन्यास का अर्थ यह है कि हम जान गए यह बात कि सुरक्षा का उपाय करो कितना भी, सुरक्षा हो नहीं पाती। कितना ही धन जोड़ो, आदमी निर्धन ही रह जाता है, भीतर गरीब ही रह जाता है। और कितनी ही शक्ति का आयोजन करो, भीतर आदमी अशक्त ही रह जाता है। और मृत्यु से बचने के लिए कितने ही पहरे लगाओ, मौत न मालूम किस अज्ञात मार्ग से बिना पदचाप किए आ जाती है। सारी सुरक्षा का इंतजाम पड़ा रह जाता है और आदमी मिट जाता है। __ संन्यास इस बात की प्रज्ञा, इस बात की समझ है, अंडरस्टैंडिंग है कि सुरक्षा करके भी सुरक्षा होती कहां है! हो भी जाती, तो भी ठीक था। होती ही नहीं, हो ही नहीं पाती। सिर्फ धोखा होता है, लगता है कि हम सुरक्षित हैं, हो नहीं पाते सुरक्षित कभी। जिंदगी असुरक्षा है। सिर्फ मरे हुए लोगों के अतिरिक्त कोई भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि सिर्फ मरे हुए लोग ही नहीं मर सकते, बाकी तो सभी मरेंगे। असुरक्षा चारों तरफ है। हम असुरक्षा के सागर में हैं। कूल-किनारे का कोई पता नहीं, गंतव्य दिखाई नहीं पड़ता, पास में कोई नाव-पतवार नहीं, डूबना निश्चित है। फिर आंखें बंद करके हम सपनों की नावें बना लेते हैं। आंखें बंद कर लेते हैं और तिनकों का सहारा बना लेते हैं। तिनकों को पकड़ लेते हैं और सोचते हैं, किनारा मिल गया। ऐसे धोखा, सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना होती है। संन्यासी का अर्थ है, जो इस सत्य को समझा कि सुरक्षा करो कितनी ही, सुरक्षा नहीं होती है। मृत्यु से बचो कितने ही, मृत्यु आती है। कितना ही चाहो कि मैं न मिटूं, मिटना सुनिश्चित है। और जब सुरक्षा से सुरक्षा नहीं आती, तो संन्यासी का अर्थ है कि वह कहता है, हम असुरक्षा में राजी हैं। अब हम राजी हैं। अब हम कोई झूठी नाव न बनाएंगे। अब हम कागज के सहारे न खोजेंगे। अब हम ताश के महल खड़े न करेंगे। अब हम पहरेदार न लगाएंगे। अब हम तिनकों का सहारा न पकड़ेंगे। अब हम जानेंगे कि कोई कूल-किनारा नहीं, असुरक्षा का सागर है और डूबना निश्चित है और मरना अनिवार्य है। मिटेंगे ही, हम राजी हैं। अब हम कोई उपाय नहीं खोजते। और जो इतने होने को राजी हो जाते हैं, अचानक वे पाते हैं, असुरक्षा मिट गई। अचानक वे पाते हैं, सागर खो गया। अचानक वे पाते हैं, किनारे पर खड़े हैं। क्यों? ऐसा क्यों हो जाता होगा? ऐसा चमत्कार क्यों घटित होता है कि जो सुरक्षा खोजता है, उसे सुरक्षा नहीं मिलती और जो असुरक्षा से राजी हो जाता है, वह सुरक्षित हो जाता है ? ऐसा मिरेकल, ऐसा चमत्कार, क्यों घटित होता है? उसका कारण है। जितनी हम सुरक्षा खोजते हैं, उतनी ही हम असुरक्षा अनुभव करते हैं। असुरक्षा का जो अनुभव है, वह सुरक्षा की खोज से पैदा होता है। जितना हम डरते हैं, जितना हम भयभीत होते हैं, उतने हम भय के कारण अपने चारों तरफ खोजकर खड़े करते हैं। वह जो असुरक्षा का सागर मैंने 768
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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