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साधक की अंतर-भूमिका के संबंध में ये सूत्र हैं। वे जो प्रभु को खोजने निकले हैं, उन्हें निरालंब हो जाना पड़ता है। उन्हें और सब आश्रय खो देने पड़ते हैं, तभी प्रभु का आसरा मिलता है। उन्हें असहाय हो जाना पड़ता है-हेल्पलेस-तभी सहायता उपलब्ध होती है। जब तक उन्हें लगता है, मैं ही कर लूंगा, जब तक उन्हें लगता है कि मैं ही समर्थ हूं, जब तक उन्हें लगता है कि मेरे पास साधन है, आसरा है, आलंबन है, तब तक वे प्रभु की अनुकंपा पाने से वंचित रह जाते हैं।
ऐसे ही, जैसे वर्षा होती है-पहाड़ पर भी होती है, पर पहाड़ वंचित रह जाते हैं। वे खुद ही अपने से इतने भरे हैं कि और उनमें भरने की जगह नहीं, सुविधा नहीं। गड्ढों में भी होती है वर्षा, पर गड्ढे भर जाते हैं, क्योंकि वे खाली हैं। जो खाली है, वह भर दिया जाता है; जो भरा है, वह खाली रह जाता है।
निरालंब पीठः।
आलंबनरहित, आश्रयरहित, यही उनके होने का ढंग है। यही उनका आसन है। कोई सहारा नहीं, कोई आलंबन नहीं, असुरक्षित। असुरक्षा की इस बात को थोड़ा गहरे में खयाल कर लें।
धन हो, तो आदमी को लगता है मेरे पास कछ है: पद हो. तो लगता है मेरे पास कछ है: ज्ञान हो. तो लगता है मेरे पास कुछ है। ये सब साधन हैं। ये सब आलंबन हैं। ये सब आश्रय हैं। इनके आधार पर आदमी अपने अहंकार को मजबत करता है।
निरालंब पीठः।
संन्यांसी तो वे हैं, जिनके पास कोई साधन नहीं, जिनके पास कुछ भी नहीं है। कुछ भी नहीं है का यह अर्थ नहीं है कि वे बिना वस्त्रों के नग्न खड़े होंगे, तभी कुछ नहीं होगा। क्योंकि जो नग्न खड़ा है बिना वस्त्रों के, वह भी हो सकता है अपने त्याग को आलंबन बना ले और कहे, मेरे पास त्याग है, दिगंबरत्व है, नग्नता है, संन्यास है। मेरे पास कुछ है। तो फिर आलंबन हो गया।
और जब आपके पास कुछ है, तो आप परमात्मा के द्वार पर पूर्ण भिक्षु की तरह खड़े नहीं हो पाते, आपकी अकड़ कायम रह जाती है। .
बुद्ध ने इसीलिए संन्यासियों को स्वामी का नाम नहीं दिया जानकर। शब्द बहुत अदभुत था। भिक्षु दिया, भिखारी कहा, कुछ भी नहीं है जिसके पास। भिक्षा का पात्र है जो बस, और कुछ भी नहीं। वह जो भिक्षा का पात्र बुद्ध ने संन्यासियों के हाथ में दिया, वह सिर्फ भीख मांगने के लिए ही नहीं था। बुद्ध कहते थे, अपने को भी एक भिक्षा का पात्र ही जानना, उससे ज्यादा नहीं; तो ही उस परम सत्य की उपलब्धि हो सकेगी।
निरालंबन हो जाना अति कठिन है। मन कहता है, कोई आलंबन, कोई सहारा, कोई आश्रय-कुछ तो हाथ में हो! अकेला न रह जाऊं, असुरक्षित न रह जाऊं, खतरे से बचने का कोई तो इंतजाम हो! तो हम सब इंतजाम करते हैं। गृहस्थ का अर्थ वही है जो आलंबन की तलाश करता है। गृहस्थ का यह