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________________ यात्रा - अमृत की, अक्षय की — निःसंशयता, निर्वाण और केवल ज्ञान की मात्र ज्ञान ही शेष रह जाता है। वहां न ज्ञाता बचता है— जानने वाला, नोअर, न वहां वह बचता है जो जाना जाता है— नोन; वहां तो केवल नोइंग बच जाती है, जानना ही बच जाता है। मैं भी मिट जाता हूं, तू भी मिट जाता है। फिर सिर्फ बीच में जो चेतना की जीवंत धारा है, ज्योति है, वही बच जाती है । कहें कि अभी जब भी हम जानते हैं, तो वहां तीन होते हैं-मैं होता हूं जानने वाला, आप होते हैं, जो जाना जाता है और दोनों के बीच का संबंध होता है, जिसे हम ज्ञान कहते हैं । ऋषि जब मिट जाते हैं, इष्ट को उपलब्ध हो जाते हैं, निर्वाण को पा जाते हैं, उपाधियां गिर जाती हैं, तो वहां न जानने वाला बचता है, न जाना जाने वाला बचता है – न ज्ञाता और न ज्ञेय - बस ज्ञान ही शेष रह जाता है। वही ज्ञान इस अस्तित्व का परम स्वरूप है। ज्ञान मात्र, जस्ट नोइंग । ध्यान उसी की तरफ एक-एक कदम चढ़ने का उपाय है। ध्यान है सीढ़ी ज्ञान की । ध्यान है दोहरा प्रयोग। इस तरफं गिराना है मैं को, उपाधियों को, तैयारी करनी है मिटने की, खो जाने की; और उस तरफ जैसे-जैसे मैं खोऊंगा, मिटूंगा, ज्ञान का आविर्भाव होगा। ज्ञाता तो नहीं बचेगा, तब ज्ञान बचता है। और ऊर्ध्वगमन ही उनका पथ है। और निरंतर ऊपर उठते जाना ही उनका मार्ग है। देखा है दीया, भागती रहती है ज्योति ऊपर की तरफ देखी आग, भागती रहती है ऊपर की तरफ। कैसा ही करो, उलटा-सीधा, भागती है ऊपर की `तरफ। पानी भागता है नीचे की तरफ। चढ़ाना हो ऊपर, तो बहुत इंतजाम करना पड़ता है, तब ऊपर चढ़ता है। इंतजाम छोड़ दें, फिर नीचे उतर जाता है। आग को नीचे की तरफ बहाना हो, तो बहुत इंतजाम करना पड़े। ऊपर स्वभाव से जाती है। शरीर का स्वभाव नीचे की तरफ है, पदार्थ का स्वभाव नीचे की तरफ है। चेतना का स्वभाव ऊपर की तरफ है। ऐसा समझ लें कि आदमी एक दीया है, मिट्टी का दीया । उसमें मिट्टी भी है, उसमें एक ज्योति भी है जलती हुई, उसमें तेल भी भरा है। वह मिट्टी का दीया जमीन की कशिश से चिपका रहता है । वह दीया टूट जाए, तो तेल नीचे की तरफ बह जाता है। लेकिन वह ज्योति सदा ऊपर की तरफ भागती रहती है। ऋषि उसे कहते हैं, जिसने अपने मिट्टी के दीए के साथ तादात्म्य तोड़ लिया, जिसने तेल के साथ संगम छोड़ दिया, जिसने केवल ऊपर भागती हुई ज्योति को ही अपना स्वरूप जाना। ऊर्ध्वगमन ही उनका पथ है। ऊपर, और ऊपर, और ऊपर वे चलते चले जाते हैं। आज इतना ही । अब हम रात के ध्यान में जाएंगे तो दो मिनट सूचनाएं सुन लें, समझ लें। बैठें, अभी उठें न। पहले दो मिनट सूचनाएं समझ लें, फिर उठें। रात के ध्यान के पहले, दोपहर के ध्यान के संबंध में दो बातें आपसे कह दूं। आज दोपहर का प्रयोग, बहुत ठीक जैसा हो सकता था, नहीं हो पाया। दो कारणों से। मजबूरी है, मैं समझता हूं, भीतर इतना 61
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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