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निर्वाण उपनिषद
आत्मा अमर है, ऐसा मानने से कुछ भी नहीं होता, जानने चलना पड़ता है। निश्चित ही जानना दूभर है, कठिन है। एक अर्थ में असंभव जैसा है—जैसे हम हैं, उसको देखते हुए। हम एक छलांग लेने की हिम्मत नहीं जटा पाते, एक कदम उठाने में डरते हैं। जिस सीढ़ी को पकड़ लिया, उसे ऐसा पकड़ते हैं कि फिर उसे कभी छोड़ना नहीं चाहते। जहां खड़े हैं, वह जमीन से हटना नहीं चाहते। ___और ऋषि कहता है कि ऋषियों का लक्ष्य, इष्ट ही निर्वाण है। बुझ जाना निर्वाण है। लक्ष्य ही यही है कि कब मिट जाऊं। __क्यों, मिटने के लिए ऐसी आतुरता क्यों है? क्योंकि ऋषि जानता है कि वही मिट सकता है, जो मिटने वाला है। वह तो मिटेगा नहीं, जो मिट नहीं सकता। इसलिए मिटकर देख लूं कि क्या मेरा है और क्या मेरा नहीं है। वह साफ हो जाए। वह निर्णय हो जाए। मैं मरकर देख लूं, ताकि निर्णय हो जाए कि क्या था जो मेरा था, और क्या था जो मेरा नहीं था। मृत्यु ही निर्णायक होगी।
इसलिए ध्यान मृत्यु का प्रयोग है। समाधि मृत्यु का अनुभव है। इसलिए हम संन्यासी की कब्र को समाधि कहते हैं। उसकी कब्र को हम समाधि इसीलिए कहते हैं, क्योंकि उस आदमी ने मरने के पहले ही जान लिया था कि क्या मरने वाला है और क्या नहीं मरने वाला है। उसे नहीं मरने वाले का पता था।
इष्ट क्या है साधक का? आप आए लंबी यात्रा करके यहां, किसलिए? अगर मुझसे पूछे तो मैं कहूंगा, इसीलिए, ताकि लौटते वक्त आप न बचें। आए भला हों, जाते वक्त जाने वाला न बचे। जाएं जरूर, भीतर सब खाली हो जाए। वह जिसे लेकर आए थे, उसे यहीं दफना जाएं, तो ध्यान पूरा हुआ, तो ध्यान में गति हुई। अगर आप ही लौट गए वापस, तो ध्यान में कोई प्रवेश न हुआ।
इष्ट यही है कि मैं मिट जाऊं, ताकि परमात्मा ही शेष रह जाए। और मजा यह है कि जब तक मैं . बचा हूं, तभी तक मैं उससे जुड़ा हूं, जो मिटेगा। और जिस दिन मैं मिट जाता हूं, मैं उससे जुड़ जाता हूं, जिसका कोई मिटना नहीं है।
वे सर्व उपाधियों से मुक्त हैं।
अब जो मिट ही गए, वहां उपाधियां क्या होंगी? क्योंकि सब उपाधियां 'मैं' के आसपास इकट्ठी होती हैं, वह 'मैं' का दरबार है। अहंकार के आसपास सब बीमारियां इकट्ठी होती हैं। अहंकार ही चला गया, तो दरबारी अपने आप चले जाते हैं। उनकी कोई जगह नहीं रह जाती। अपदस्थ हो जाते हैं। ___उपाधि एक है। वह मेरे होने का मुझे जो खयाल है, वही मेरी उपाधि है, वही मेरी बीमारी है। फिर उस बीमारी में लोभ इकट्ठा होता है. क्योंकि मझे बचाना है अपने को. तो लोभ करना पड़ता है। फिर उस बीमारी में भय आता है, हिंसा आती है। फिर उस बीमारी में काम आता है, वासना आती है, तृष्णा आती है। फिर हजार उपाधियां चारों तरफ खड़ी हो जाती हैं। उस 'मैं' को बचाने के लिए यह सारा सुरक्षा का इंतजाम है। लेकिन जब मैं ही मिटने को राजी हो गया, तो इस इंतजाम की कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह पूरा इंतजाम गिर जाता है।
वे उपाधियों से मुक्त हैं। वहां ज्ञान मात्र ही शेष रह जाता है—निष्केवलज्ञानम्। . बस केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है। यह महावीर को बहुत प्यारा शब्द था-केवल ज्ञान। बस
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