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यात्रा-अमृत की, अक्षय की निःसंशयता, निर्वाण और केवल-ज्ञान की
नंबर एक के सिपाही से कहा, कूद जा। वह सात मंजिल से कूद गया। वह ब्रिटिश राजनीतिज्ञ तो घबरा गया। उसने दूसरे सिपाही से कहा, कूद जा। वह दूसरा सिपाही सात मंजिल से कूद गया। ब्रिटिश राजनीतिज्ञ तो कंप गया। अगर ये सैनिक हैं इसके पास, तो ब्रिटेन न टिक सकेगा। हिटलर ने तीसरे सैनिक से कहा....। . उस राजनीतिज्ञ ने कहा, रुको, यह कर क्या रहे हो? रुको, मैं मान गया, मान गया, काफी है इतना, पर्याप्त है। और पास जाकर उसने तीसरे सैनिक से पूछा, इतनी उतावली क्या है ? इतनी जल्दी मरने की तैयारी क्या है? तो उस सैनिक ने कहा, अगर हम जी रहे होते, तो कौन मानता इस आज्ञा को। लेकिन इस आदमी के साथ जीने से सात मंजिल से कदकर मर जाना बेहतर है।
कारण दूसरा ही है। तो अगर आप मेरी मानकर आग में कूद जाएं, तो मैं नहीं मानूंगा कि मेरी मानकर कूद गए। कारण कुछ और ही होगा। क्योंकि श्रद्धा, आस्था, भरोसा, विश्वास, सब ऊपरी है। जब तक स्वयं ही पता न चले उसका, जो अमृत है, तब तक आग में कूदते वक्त संशय बना ही रहेगा। पता नहीं इस आदमी ने जो कहा, ठीक है या नहीं? पता नहीं उपनिषद के ऋषि जो कहते हैं, ठीक है या नहीं?
दूसरे का कहा हुआ सदा ही संशय रहेगा। रहेगा ही। कोई उपाय नहीं है। स्वयं का जाना हुआ ही निस्संशय में ले जाता है। ऋषि वही है, जो स्वयं जान लेता है। . इसलिए कहा है, निस्संशय हो जाना, संशय रिक्त, शून्य हो जाना ऋषि का लक्षण है।
ठीक लक्षण है। यही पहचान है। अगर कभी किसी ऋषि के पास होने का मौका मिले, तो पहली बात एक ही खोजना, और वह यह कि उसे कोई संशय तो नहीं है! वह कभी सवाल तो नहीं पूछता! वह कभी प्रश्न तो नहीं उठाता। वह अभी भी कहीं जाता तो नहीं पता लगाने कि सत्य क्या है?
ऋषि निस्संशय है; जो उसने जाना है, उससे उसके संशय गिर गए हैं। अब कोई प्रश्न नहीं उठता, निष्प्रश्न है। अब भीतर कोई सवाल नहीं है। कोई जवाब की खोज भी नहीं है।
निर्वाण ही उसका इष्ट है।
निस्संशय उसका चित्त है, निर्वाण उसका इष्ट है। एक ही लक्ष्य है उसका कि मिट जाए, कैसे मिट जाए। हम सबका लक्ष्य है कि हम कैसे बच जाएं—किस तरकीब से। अगर हम धर्म की तरफ भी जाते हैं, तो बचने के लिए। अगर हम शास्त्र भी पढ़ते हैं, तो इसी आशा में कि शायद कोई रास्ता मिल जाए बचने का। अगर हम यह भी श्रद्धा कर लेते हैं कि आत्मा अमर है, तो इसीलिए ताकि मरना न पड़े। ठीक ही कहते होंगे ये लोग। अगर ये ठीक नहीं कहते. तो मरना पडेगा।
इसलिए जितनी कमजोर कौमें हैं, आत्मा की अमरता में जल्दी विश्वास कर लेती हैं। और आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाली कौमें जमीन पर कमजोर सिद्ध हुई हैं। उनमें संगति है। हम ही हैं। हमसे ज्यादा भयभीत और डरे हुए लोग जमीन पर खोजने मुश्किल हैं। और हमसे ज्यादा आत्मवादी भी खोजने मुश्किल हैं। इन दोनों में कोई तालमेल नहीं है। इन दोनों में कोई भी तालमेल नहीं है, क्योंकि आत्मवादी का तो अर्थ ही यही होगा कि अब मृत्यु नहीं रही, तो भय किसका? लेकिन हमारे मुल्क को हजार साल तक गुलाम रखा जा सकता है। हाथ में हथकड़ियां और हम अपना शास्त्र पढ़ते रह सकते हैं कि आत्मा अमर है।
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