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यात्रा - अमृत की, अक्षय की — निःसंशयता, निर्वाण और केवल - ज्ञान की
चलता है, कल नहीं चल सकेगा। आज उठता है, कल गिरेगा – मिट्टी से एक हो जाएगा। डस्ट अनटू डस्ट, धूल में धूल मिल जाएगी।
मन भी एक पर्त है, उसका भी क्षय होता है। वह भी क्षीण होता चला जाता है । पर्तें सदा क्षीण हो जाती हैं, क्योंकि वे ऊपर से चढ़ाई गई हैं, वे अलग हो जाती हैं; जोड़ी गई हैं, टूट जाती हैं; संयुक्त की गई हैं, वियुक्त हो जाती हैं। लेकिन भीतर जो है, जो पर्त नहीं स्वभाव है, स्वरूप है, जो मैं हूं, जो सदा सेहूं मैं, जिससे अन्यथा मैं कभी भी नहीं था और जिससे अन्यथा मैं कभी भी नहीं होऊंगा, उसका कोई क्षय नहीं होता ।
बुद्ध से कोई पूछता है कि मैं मरूंगा तो नहीं ! तो बुद्ध कहते हैं : जो तुम्हारे भीतर मरा ही हुआ है, वह मरेगा। और जो तुम्हारे भीतर कभी जन्मा ही नहीं है, उसके मरने का सवाल क्या है !
एक है हमारे भीतर जो जन्मा है; जो जन्मा है, वह मरेगा। जब एक छोर हो गया, तो दूसरा छोर भी अनिवार्य है। आप एक ऐसा डंडा नहीं खोज सकते जिसमें एक ही छोर हो । और अगर किसी दिन खोज लें, तो समझना कि जो जन्मा है, अब नहीं मरेगा।
नहीं, दूसरा छोर होगा ही! जब एक छोर है, तो दूसरा छोर होगा ही । असल में एक छोर हो ही नहीं सकता, दूसरे छोर के साथ ही होता है। जो जन्मा है वह मरेगा, जो मरा है वह जन्मता रहेगा। क्या कुछ ऐसा भी है भीतर, जो जन्मा नहीं है ? अगर उसका पता चल जाए, तो उसका भी पता चल जाता है जो मरता नहीं ।
निश्चित ही, ऐसा भीतर कुछ है। लेकिन गहरे उतरना पड़े, पर्तों के पार उतरना पड़े। और हम तो पर्तों के इतने रखवाले हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं ।
- अब कोई ध्यान करता है। जरा उसका कपड़ा सरक जाता है, तो वह जल्दी से पहले कपड़ा सम्हालता है। ध्यान नहीं सम्हालता। कपड़ा सम्हालने में ध्यान चूक जाता है, उसकी फिक्र नहीं है। वह सस्ती चीज है, वह खोई जा सकती है। कपड़ा जल्दी से सम्हाल लेता है, वह बड़ी कीमती चीज है। इसको बचाना जरूरी है।
बहुत दीन है आदमी। अपने हाथ से दीन है। छुद्र को बचाता रहता है। जो मिटेगा, उसे बचाता रहता है। जिसका कोई भी मूल्य नहीं है, उसको तिजोरियों में ताले लगाकर रखता रहता है। और जो अमूल्य है। वह बाहर पड़ा रहता है सड़क पर । उसको कोई पूछता भी नहीं !
कभी-कभी मैं देखता हूं कि कितनी छोटी चीजें बाधा बन जाती हैं। कपड़ा बचाता है आदमी, शरीर बचाता है आदमी। किसी का धक्का लग जाता है, तो वह बचकर निकल जाता है; ध्यान के बाहर दूर जाकर बैठ जाता है । धक्का लग गया, इस शरीर को कितने दिन बचाइएगा? और धक्के से बचाने से क्या सोचते हैं, आखिरी धक्का नहीं लगेगा ? अच्छा है, छोटे-मोटे धक्के का अभ्यास रखें, तो आखिरी लगेगा तो बहुत घबड़ाहट नहीं होगी। बिलकुल बचा- बचाकर रखा, तो बहुत मुश्किल पड़ेगी। और धक्का तो लगेगा ही। इसे बचाया नहीं जा सकता। क्षुद्र...!
धूप तेज हो गई, तो ध्यान छोड़ देता है आदमी कि धूप तेज है। क्या फर्क पड़ेगा? थोड़ा पसीना बह | थोड़ी चमड़ी काली पड़ जाएगी। आज नहीं कल, कोयला बनने वाली है वह चमड़ी। और आप
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