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________________ निर्वाण उपनिषद आखिरी रूप नहीं हो सकता। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, इस जन्म में नहीं अगले जन्म में, कभी न कभी मैं उसे पाही लूंगा, जो मेरा स्वभाव है। इसलिए आनंद की अनंत खोज चल रही है। ऋषि कहता है, वे जो परमहंस हैं, अमृत की तरंगों से युक्त जैसे कोई सरिता हो, ऐसी उनकी चेतना है। ध्यान रहे, लेकिन ऋषि कहता है, अमृत की तरंगों से युक्त । यह जो जीवन की भीतर धारा है, डायनेमिक है, स्टैगनेंट नहीं है— गत्यात्मक है, सरिता की तरह है, सरोवर की तरह नहीं । भरे हुए तालाब की तरह नहीं है, जिसमें पानी भरा है। एक बहती हुई नदी की तरह है— उफनती, दौड़ती, भागती, जीवंत। ध्यान रहे, सरोवर अपने में बंद और कैद होता है, और सरिता सागर की खोज पर होती है। सागर की तरफ जो दौड़ है, वही तो सरिता का रूप है। उस सागर की तरफ जो खिंचाव है, कशिश है, वही तो सरिता का जीवन है। तो ऋषि कहता है, अमृत की तरंगों से भरी हुई सरिता जैसी जिसकी चेतना है, जो निरंतर गत्यात्मक है, गतिमान है, अगम की खोज में, अनंत की खोज में भागा चला जा रहा है। और ध्यान रहे, यह मत सोचना आप कि जब सरिता सागर में गिरती है, तो खोज समाप्त हो जाती है। सरिता सागर में गिरती है, हमारे लिए मिट जाती है, लेकिन सरिता तो सागर में और गहरे, और गहरे, और गहरे डूबती ही चली जाती है। तट छूट जाते हैं, सरिता की सीमा मिट जाती है, लेकिन सागर की गहराइयों का कोई अंत नहीं है। खोज चलती ही चली जाती है। छोटी लहरें बड़ी लहरें हो जाती हैं। अमृत तूफान आने लगते हैं, अमृत का सागर हो जाता है; लेकिन खोज चलती ही चली जाती है। के यह खोज अनंत है, क्योंकि ईश्वर को कभी चुकता नहीं किया जा सकता। ऐसा कोई क्षण नहीं आ सकता कि कोई आदमी कह दे कि नाउ आई पजेस, अब मेरी मुट्ठी में है ईश्वर। हां, ऐसा एक क्षण जरूर आता है, जब खोजी कहता है कि अरे, ईश्वर ही बचा, मैं कहां गया! मैं कहां हूं अब ! वह जो खोजने निकला था, खो गया है; और जिसे खोजने निकला था, वह हो गया है। बड़ी दुर्घटना की बात है कि व्यक्ति का और परमात्मा का कभी मिलन नहीं होता। क्योंकि जब तक व्यक्ति होता है, तब तक परमात्मा प्रकट नहीं हो पाता; और जब परमात्मा प्रकट होता है, तो व्यक्ति खोजे से मिलता नहीं। उसके साथ एक हो गया होता है। इसलिए अनंत खोज की प्रतीक चेतना की धारा ऋषि ने कही है। अक्षय और निर्लेप उसका स्वरूप है। अक्षय और निर्लेप उसका स्वरूप है। उस चेतना का, उस अंतरात्मा का स्वरूप है अक्षय । कितनी ही गति हो, क्षय नहीं होता । कितनी ही यात्रा हो, ऊर्जा समाप्त नहीं होती । कितना ही चलो - अथक, थकता नहीं। वह जो भीतर है, जरा भी क्षीण नहीं होता। अनंत है स्रोत उसका । कितना ही उलीचो, चुकता नहीं है। अक्षय है, क्षय नहीं होता। उस चेतना का कोई क्षय नहीं है । और जिसका कोई क्षय नहीं है, वह निर्लेप ही हो सकती है, क्योंकि क्षय तो लेप का होता है। इसे थोड़ा समझ लें। हमारे ऊपर जिन-जिन चीजों की पर्तें हैं, उनका क्षय होता है। शरीर की पर्त है, वह क्षय होगी। आज जवान है, कल बूढ़ा होगा। आज युवा है, कल वृद्ध होगा। आज शक्तिशाली है, कल जर्जर होगा। आज 56
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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