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________________ यात्रा-अमृत की, अक्षय की-निःसंशयता, निर्वाण और केवल-ज्ञान की है-इस मुल्क के लोगों ने उन्होंने गड़ाने पर जोर नहीं दिया। हां, सिर्फ संन्यासी को गड़ाते हैं, क्योंकि उसको तो पहले ही से पता है। उसे जलाने से कुछ नया पता नहीं चलेगा। वह जलने के पहले भी जानता है कि जो जलने वाला है, वह जलेगा। इसलिए सिर्फ संन्यासी को हम गड़ाते हैं, या छोटे बच्चों को गड़ाते हैं। बाकी को हम जलाते हैं। छोटे बच्चों को भी इसीलिए गड़ाते हैं कि वे भी अभी इतने भोले हैं कि शायद अभी जीवन ने उन्हें विकृत नहीं किया होगा। संन्यासी को भी इसीलिए गड़ाते हैं कि वह फिर इतना भोला हो गया है कि जीवन ने जो विकार दिए थे, वे पोंछ दिए गए। लेकिन बाकी को हमें जलाना पड़ता है। असल में हम इतने जोर से अपने शरीर के साथ बंधे हैं कि जब तक कोई हमारे शरीर को जलाकर राख न कर दे, तब तक हमें भरोसा न आएगा कि यह शरीर हमारा था और अब नहीं है, समाप्त हो गया। हिंदू अदभुत हैं इस अर्थ में इस पृथ्वी पर। उन्होंने कुछ गहनतम बातें खोजी हैं। बाप मर जाता है, तो उसके बड़े लड़के से उसका सिर तुड़वाते हैं। यह बड़ा कठोर और क्रूर मालूम पड़ता है। बिना सिर फोड़े भी जलना हो सकता है। सिर फोड़ने की क्या जरूरत है? और यह काम नौकर-चाकर से भी लिया जा सकता है। गांव में बाप के कोई दुश्मन भी होंगे, उनको आनंद भी आ सकता था, उनसे लिया जा सकता है। यह उसके बेटे से ही करवाने का? और हिंदुस्तान में बाप रोते थे इसलिए कि अगर बेटा न . हुआ, तो अंतिम क्रिया कौन करेगा। इसलिए बेटे को पैदा करते थे कि वह अंतिम जो क्रिया है, कपाल-क्रिया, सिर तोड़ने की, वह बेटा करेगा। क्यों? इन्हें कुछ सूत्र पता थे। शरीर तो जलेगा ही, इसके साथ एक और तरकीब और एक साधना का क्रम कि वह बेटा ही बाप के सिर को तोड देगा. जिसने जन्म दिया था इस बेटे को। वह उसकी मत्य में सहयोगी होगा। उसके मरने की पूरी घटना करवा देगा, ताकि वह जो बाप की छटती हई चेतना है, वह संबंधों के आग्रह से भी छट जाए। अपना-पराया मानने का खयाल भी भूल जाए। कौन मित्र है, कौन शत्रु है, यह भी छूट जाए। कौन बेटा है, कौन बेटा नहीं है, यह भी छूट जाए। संबंध जो पकड़ लेते हैं, वह राग भी टूट जाए। इस मृत्यु में हमने उसका भी उपयोग किया था। और जब बाप ने इतनी कृपा की कि जन्म दिया, तो बेटा अब जन्म तो दे नहीं सकता बाप को, उऋण होगा कैसे? मृत्यु दे सकता है। सर्किल पूरा हो जाता है। बड़ा कठोर है यह, लेकिन पीछे कुछ गणित है।। __यह जो हमें स्मरण नहीं आता कि हम मर जाएंगे, यह सिर्फ अज्ञान के कारण नहीं है। यह वस्तुतः इसलिए स्मरण नहीं आता कि भीतर हमारे वह है, जो नहीं मर सकता है। हमारे ऊपर कुछ है, जो मरेगा, और हमारे भीतर कुछ है, जो नहीं मरेगा। और जब हम दूसरे को मरते देखते हैं तो उसके ऊपर का ही मरते देखते हैं, भीतर का तो हमें कुछ पता नहीं चलता। वह हमारे भीतर जो अमृत है, वह कैसे माने। वह नहीं मान पाता। लाखों मौत घट जाएं, तो भी भीतर कोई कहे चला जाता है कि आप मर गए होंगे, लेकिन मैं अपवाद हूं, मैं नहीं मरूंगा। यह अज्ञान के कारण ही नहीं है सिर्फ। गहरे में तो कारण यही है कि भीतर कुछ है, जो मरना जिसका स्वभाव ही नहीं है। कितना ही दुख मिल जाए, तो भी हम सुख की आशा बांधे चलते हैं। उसका भी कारण यही है कि कितना ही दुख मिल जाए, जो मेरा स्वभाव नहीं है, वह मेरी नियति नहीं बन सकती, वह मेरा अल्टीमेट, 55 V
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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