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निर्वाण उपनिषद
का हमें अनुभव ही इसीलिए होता है कि हमारी चेतना दुख के लिए निर्मित नहीं है। अगर हमारी चेतना दुख ही होती, तो हमें दुख का अनुभव न होता। अनुभव सदा विपरीत का होता है। इसे ठीक से खयाल में ले लें।
अनुभव सदा विपरीत का होता है। अगर मुझे दुख का अनुभव होता है, तो उसका अर्थ ही यही है कि मेरे भीतर कोई है, जिसका स्वभाव दुख नहीं है। नहीं तो अनुभव न होता। अगर मेरे भीतर जो है, उसका स्वभाव भी दुख है, तो बाहर का दुख आता और मिल जाता और एक हो जाता। मैं और धनी हो जाता। मैं और संपत्तिशाली हो जाता। पीड़ा न होती, परेशानी न होती, चिंता न होती। अंधेरे में थोड़ा अंधेरा और आकर मिल जाता, तो कौन सी खलल पड़ती ! जहर में थोड़ा जहर और आ जाता, तो क्या जहर की मात्रा बढ़ने से कुछ परेशानी होती !
नहीं, परेशानी विपरीत के कारण होती है। वह जो भीतर हमारे छिपा है, वह परम आनंद स्वभावी है। जरा सा दुख छिद जाता है कांटे की तरह। वह जो हमारे भीतर छिपा है, वह अमृतघन है। इसलिए मौत, कितना ही भुलाओ, भूलती नहीं। वह चारों तरफ से घेरकर खड़ी हो जाती है और दिखाई पड़ती है। अगर सच में ही हमारे भीतर भी मौत होती, तो हमें मौत का कोई भय भी न होता, मौत की कोई चिंता भी न होती । अगर हम मौत ही होते, तो मौत और हमारे बीच तो एक संगति होती, एक तारतम्य होता, एक हारमनी होती। लेकिन हमारे भीतर जीवन है, और इसलिए मौत से एक संघर्ष है, एक सतत संघर्ष है।
और भी मजे की बात है कि आप रोज लोगों को मरते देखते हैं और साधु-संत आपको समझा फिरते हैं कि देखो, इतने लोग मर रहे हैं, तुम भी मरोगे, अपनी मौत को स्मरण करो। फिर भी हमारे भीतर न मालूम क्या है कि कितना ही लोगों को मरते देखो, यह खयाल कभी नहीं आता कि मैं भी मरूंगा । सामने कोई मरा पड़ा है, तो भी हम कहते हैं, बेचारा मर गया। लेकिन ऐसा खयाल नहीं आता कि मैं भी मरूंगा। इसे हम बहुत समझाने की भी कोशिश करें अपने को, तो भी समझ में नहीं आता । कुछ बातें हैं, जो समझ में आ ही नहीं सकतीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन काफी हाउस में बैठकर बात कर रहा था और अपने मित्रों को कह रहा था कि कुछ ऐसी बातें हैं, जो मानी ही नहीं जा सकतीं, जो असंभव हैं। उन मित्रों ने पूछा कि उदाहरण के लिए एकाध । तो मुल्ला ने कहा, जैसे, जैसे कल मैं रास्ते से निकल रहा था। अंधेरा था, एक दरवाजे के पास दो व्यक्ति खड़े होकर बात कर रहे थे कि सुना है हमने, मुल्ला नसरुद्दीन मर गया। मैंने भी सुना, लेकिन मुझे भरोसा न आ सका। कैसे भरोसा आ सकता है ?
जानकर आप हैरान होंगे कि जो लोग बिना किसी पीड़ा के चुपचाप मर जाते हैं, उन्हें मरने के बाद भी कई घंटे लग जाते हैं भरोसा करने में कि वे मर गए। इसलिए हमने इंतजाम किया है कि जैसे ही कोई मर जाता है, सारा घर छाती पीटकर रोता है, चिल्लाता है, अर्थी बांधी जाने लगती है। बैंड ढोल बजने लगता है, ले जाने की तैयारी शुरू हो जाती है। ज्यादा देर नहीं करते, जल्दी मरघट पहुंचाते हैं उसे, जलाते हैं। इसके पीछे कारण है । इसके पीछे कारण है ताकि उस चेतना को पता हो जाए कि उसका शरीर से संबंध टूट गया, और जिसे उसने अब तक जाना था कि मैं था, वह मर चुका है।
गड़ाने से यह फायदा नहीं होता। इसलिए जिन्होंने आत्मा और मृत्यु के संबंध में सर्वाधिक खोज की
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