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________________ यात्रा-अमृत की, अक्षय की—निःसंशयता, निर्वाण और केवल-ज्ञान की एल.एस.डी. भीतर से पैदा हो जाता है। बाहर से ही लेने की जरूरत नहीं है, भीतर भी पैदा होता है। सारा का सारा, जिसको हम सेक्सुअल अट्रैक्शन कहते हैं, कामुक आकर्षण कहते हैं, वह कुछ भी नहीं है, आपके ग्लैंड्स में बहने वाले रस हैं, केमिकल्स हैं, और कुछ भी नहीं है। अगर आपके शरीर से थोड़ी सी ग्रंथियां और रसों को पैदा करने वाले सूत्र अलग कर लिए जाएं, आपको स्त्री सुंदर दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। कोई भी स्त्री सुंदर दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। कोई भी पुरुष सुंदर दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा। आपको नहीं दिखाई पडता। आपके और जो दिखाई पडता है उसके बीच में रस की एक धार आ जाती है। वह रस की धारा-वह चाहे एल.एस.डी. बाहर से लिया जाए, चाहे भीतर से पैदा हो जाए। भीतर भी, आदमी के भीतर भी हिप्नोटिक ड्रग्स पैदा होते हैं। जवानी में उसी तरह के पागलपन पैदा होते हैं। वही मूर्छा पकड़ लेती है। ___ऋषि कहते हैं, माध्यम से जब भी कुछ देखा जाएगा-किसी भी माध्यम से-तो माध्यम भी विकार पैदा करेगा। तो वह जो निर्लेप आकाश जैसा सिद्धांत है, उसे तो तभी देखा जा सकता है, जब देखने वाले ने अपने देखने के सब साधन छोड़ दिए–सब साधन छोड़ दिए, आल इन्सट्रमेंट्स आफ विजन। न अपने कान का उपयोग करता है सुनने के लिए, न अपनी आंख का उपयोग करता है देखने के लिए, न अपने हाथ का उपयोग करता है छूने के लिए। . ध्यान रहे, ध्यान की गहराई में वह दिन आ जाता है, जब बिना छुए स्पर्श होता है और बिना आंख के दिखाई पड़ता है और बिना कान के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं। जो बिना कान के सुनाई पड़ता है, उसे ऋषियों ने अनाहत कहा है। जो बिना आंख के दिखाई पड़ता है, उसे ऋषियों ने अगोचर कहा है। जो बिना हाथ के जिसका स्पर्श हो जाता है, उसे ऋषियों ने अमूर्त कहा है। लेकिन उस अनुभव के पहले स्वयं भी आकाश जैसा निर्मल और निर्लेप हो जाना जरूरी है। सारी इंद्रियां हट जाएं बीच से, तो भीतर वह जो चेतना का आकाश है, मुक्त हो जाता है और बाहर के आकाश से एक हो जाता है। उनका सिद्धांत आकाश के समान निर्लेप है। अमृत की तरंगों से युक्त...। जैसे अमृत की तरंगों से भरी हुई सरिता हो, ऐसी उनकी आत्मा है। कठिन होगा हमें समझना। हम तो यहां से समझना शुरू करें तो आसान होगा कि दुख की तरंगों से भरा हुआ सब कुछ, नरक की लपटों से भरा हुआ सब कुछ, ऐसी हमारी स्थिति है। वहां अमृत का तो कहीं कोई पता नहीं चलता, सिर्फ जहर ही जहर मिलता है। सुख की तो कोई अनुभूति नहीं होती, दुख ही दुख के कांटे सारे जीवन में चारों तरफ से चभ जाते हैं। सुख का कोई फल खिलता नहीं। तो जिस ऋषि की यह बात की जा रही है, जिन ऋषियों की यह बात की जा रही है कि अमृत की तरंगों से भरी हुई जैसे कोई सरिता हो, ऐसी उनकी चेतना है, यह हमारे खयाल में न आएगा। कुछ भी रास्ता हमें न सूझेगा कि हम कैसे समझें इसे। हम तो जानते हैं मृत्यु को, अमृत को तो नहीं जानते। हम जानते हैं दुख को, आनंद को तो हम नहीं जानते। हम जानते हैं विषाद को, पीड़ा को; आह्लाद को, अहोभाव को तो हम नहीं जानते। हमारा सारा अनुभव नरक का है। ठीक इससे विपरीत हो सकता है। हमारे नरक में ही सूचना छिपी है इसके विपरीत होने की। दुख 53 v
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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