SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्वाण उपनिषद अपने परम शिखर पर पहुंचता है, वहां जाकर जो सिद्ध होता है, वहां जिसका दर्शन होता है, उस सिद्धांत को आकाश की तरह निर्लेप कहा है। इसलिए ऋषि किसी धर्म का नहीं होता। सभी धर्म ऋषियों से पैदा होते हैं, लेकिन ऋषि किसी धर्म का नहीं होता। न तो जीसस ईसाई हैं और न मोहम्मद मुसलमान हैं और न कृष्ण हिंदू हैं और न महावीर जैन हैं। मजे की बात लेकिन यह है कि महावीर से जैन विचार चलता है, मोहम्मद से इस्लाम का विचार चलता है। लेकिन मोहम्मद मुसलमान नहीं हैं, हो भी नहीं सकते। फिर यह दुर्घटना क्यों घटती है कि ऋषि तो निर्लिप्त होता है आकाश की तरह, आग्रह शून्य होता है, विचार और मतांधता उसमें नहीं होती, सिर्फ दर्शन होता है उसके पास। उसे दिखाई पड़ता है, जो है। लेकिन जब ऋषि भी कहने जाता है, तो जो दिखाई पड़ता है, शब्दों में बंधता है और संकीर्ण हो जाता है। और जब हम सुनते हैं, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है सत्य का, तो जो हम समझते हैं वह कुछ और ही होता है। जो ऋषि जानता है वह कुछ और है, जब ऋषि उसे कहता है तब वह कुछ और है, और जब हम उसे सुनते हैं तब वह कुछ और हो जाता है। और फिर हजारों साल की यात्रा करके वह सत्य से इतने दूर हो जाता है जितना कि असत्य ही होता है दर, और कुछ भी नहीं। महावीर से जैन-सिद्धांत उतने ही दूर हो जाता है, जितना सत्य से असत्य दूर हो जाता है, और मोहम्मद से इस्लाम उतने ही दूर हो जाता है, और जीसस से ईसाइयत उतनी ही दूर हो जाती है। हो ही जाएगी। जो प्रक्रिया है, ऋषि तो देखता है। हो गया होता है सत्य के साथ एक। कोई बीच में पर्दा और दीवार नहीं रह जाती। लेकिन जब कहता है, तो शब्दों के पर्दे और दीवारें उठनी शुरू हो जाती हैं। इसलिए बहुत से ऋषि चुप रह गए और उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। लेकिन उससे कुछ हल नहीं होता, क्योंकि नहीं कहने से भी तो कहा नहीं जाता है। कहने से भी कहा नहीं जाता है, नहीं कहने से भी नहीं कहा जाता है। कहने से भूल का डर है, नहीं कहने से भूल का कोई डर नहीं है। लेकिन कहने में एक आशा भी है कि शायद कोई सुनने वाला भूल न करे। न कहने में वह आशा भी नहीं है। हजार लोगों से कहा जाए सत्य, हो सकता है एक समझ ले। वह एक की आशा में ही कहा गया है सत्य। नौ सौ निन्यानबे न समझ पाएं, गलत समझ जाएं, लेकिन न कहा जाए, तब तो हजार ही नहीं समझ पाएंगे, वह एक भी वंचित रह जाता है। बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बुद्ध को लगा कि जो जाना है उसे कहूंगा कैसे! इसलिए बुद्ध चुप रह गए। सात दिन तक वे चुप थे। बहुत मीठी कथा है कि देवताओं ने बुद्ध के चरणों में सिर रखे और बुद्ध से कहा कि जो तुमने जाना है वह कहो, क्योंकि बुद्ध जैसा पुरुष हजारों वर्षों में एक बार पृथ्वी पर आता है। हजारों वर्षों में कभी यह अवसर मिलता है कि अंधे भी प्रकाश की बात सुन सकें और बहरे भी संगीत से भर जाएं, लंगड़े भी चल सकें उस तरफ, मुर्दे भी जीवन की आशा से हरे हो जाएं। तुम बोलो।। पर बद्ध ने कहाः जो मैंने जाना है, वह बोला नहीं जा सकता। और फिर मैं सोचता है कि मैं बोलं भी, तो जो मुझे समझ पाएंगे, वे मेरे बिना बोले भी समझ जाएंगे। जो इस योग्य होंगे कि मुझे समझ पाएं, वे मेरे बिना बोले भी समझ जाएंगे। और जो मुझे बोलकर नहीं समझ पा रहे हैं, वे वे ही होंगे, जो मेरे बिना बोले भी नहीं समझ पाते। इसलिए मेरे चुप रह जाने में हर्ज क्या है? देवता बहुत व्यथित हुए, बहुत चिंतित हुए। उन्होंने आपस में बहुत मंथन-मनन किया। फिर बुद्ध 748
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy