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________________ निर्वाण उपनिषद-अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस वासना को रोकने में, काम को रोकने में वे पहरेदार जैसे होते हैं। क्या मतलब है इसका? बुद्ध कहते थे कि अगर घर का मालिक जगा हो, तो चोर उसके घर में आने की हिम्मत नहीं जुटाते। घर में अगर दीया जला हो और प्रकाश हो, तो चोर उस घर से बचकर चलते हैं। घर के द्वार पर अगर पहरेदार बैठा हो, तो चोर फिर उस घर में प्रवेश पाने की अनुमति तो मांगने नहीं आते। चोर तो वहां प्रवेश करते हैं जहां पहरेदार नहीं हैं, जहां घर का मालिक सोया है और अंधेरा है। __ ऋषि कहता है, ऐसे जो परमहंस की शक्ति को जगा लेते हैं, उनके भीतर सतत पहरा, कांस्टैंट विजिलेंस, सतत पहरा हो जाता है। उनके भीतर वासना प्रवेश नहीं करती। उनके भीतर कामना प्रवेश नहीं करती। उनके भीतर तृष्णा को रास्ता नहीं रह जाता। ऐसा समझें तो आसान होगा, सोए हुए मन में ही वासना का प्रवेश हो सकता है, अंधेरे से भरे मन में ही वासना का प्रवेश हो सकता है। जहां विवेक अजागरूक है, वहीं वासना का प्रवेश हो सकता है। वासना प्रवेश ही वहां कर सकती है, जहां विवेक नहीं है। जैसे अंधेरा वहीं प्रवेश कर सकता है, जहां प्रकाश नहीं है। ___ तो इस परमहंस को जिसने भीतर जगा लिया है, वही संन्यासी है। उस संन्यासी के भीतर कामवासना प्रवेश नहीं करती। . ध्यान रहे; ऋषि यह नहीं कहता है कि संन्यासी वह है जो कामवासना पर नियंत्रण पा लेता है। ध्यान रहे, ऋषि यह नहीं कहता कि जिसने नियंत्रण पा लिया। जिसने नियंत्रण पा लिया उसके भीतर तो प्रवेश भलीभांति है। नियंत्रण पाने के लिए भी मकान के भीतर ही चाहिए पड़ेगा। अगर कामवासना पर नियंत्रण पाना है, तो भी उसे भीतर होना चाहिए आपके, तभी तो आप उस पर नियंत्रण पा सकेंगे। नहीं, ऋषि यह भी नहीं कहता कि संन्यासी संयमी होता है। क्योंकि संयम का क्या प्रयोजन है? संयम का तो वहीं प्रयोजन है; जहां असंयमित होने की आकांक्षा मौजूद हो। ___ऋषि इतना ही कहता है कि जैसे पहरेदार बैठा हो और चोर भीतर प्रवेश नहीं करते, ऐसा ही उस व्यक्ति में वासनाएं प्रवेश नहीं करतीं। नहीं, ऐसा नहीं कि वह वासनाओं को हटाता है और निकालता है। बस वे प्रवेश नहीं करतीं—पर परमहंस जागे भीतर। सार और असार दिखाई पड़ने लगे, सार्थक और निरर्थक दिखाई पड़ने लगे, तो अपने आप उस प्रकाश के वर्तुल के भीतर कोई प्रवेश उस सबका नहीं होता, जिससे हम पीड़ित हैं। दो उपाय हैं। एक उपाय है नैतिक व्यक्ति का। वह कहता है, गलत को हटाओ, सही को लाओ। एक उपाय है धार्मिक व्यक्ति का। वह कहता है, सिर्फ जागो, प्रकाशित हो जाओ। वह जो अंत में छिपा हुआ तुम्हारे भीतर प्रकाश-बीज है, उसे तोड़ दो। वह जो दीया है आवृत्त, उसे अनावृत्त कर दो। फिर बुरा नहीं आता, और जो आता है वह भला ही होता है। ये दो मार्ग हैं-एक मॉरलिस्ट का, नैतिकवादी का; एक धार्मिक का। ध्यान रहे, धर्म और नीति के रास्ते बड़े अलग हैं। नीति के रास्ते से अनीति कभी समाप्त नहीं होती। धर्म के रास्ते से अनीति का कोई पता ही नहीं चलता। लेकिन नैतिक आदमी धर्म से भी डरता है। क्योंकि उसे डर लगता है कि अगर अनीति पर कोई नियंत्रण न रहे, तो फिर क्या होगा? उसे पता ही नहीं है कि 397
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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