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________________ निर्वाण उपनिषद है-रिझाई का गुरु। ध्यान रहे, रिझाई के गुरु का कोई नाम नहीं था, इसलिए मैं बार-बार कह रहा हूं, रिझाई का गुरु। नाम नहीं था इस आदमी का। और वह आदमी कहता है कि मैं जो करता हूं, वही सही है, और मैं जो नहीं करता, वही गलत। तो कहा कि एक आदमी है, लेकिन उसका नाम नहीं है। इसलिए उसको बुलाइएगा कैसे! और वह दरबार में आने को राजी होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। कभी तो वह झोपड़े में जाने को भी राजी हो जाता है, कभी वह राजमहल में भी जाने को राजी नहीं होता है। वह हवा-पानी की तरह है। उसका कोई भरोसा नहीं कि वह किस तरफ बहने लगे। आपको ही जाना पड़ेगा। पर सम्राट ने कहा कि जिसका नाम नहीं है मैं पछंगा कैसे कि किसको खोज रहा हं! तो सलाह देने वालों ने कहा कि यह है कठिनाई। लेकिन आप यही पूछते हुए खोजना कि मैं उसको खोज रहा हूं, जिसको खोजना बहुत मुश्किल है। शायद कोई बता दे। शायद कहीं वह मिल जाए। __सम्राट गया। गांव के बाहर पत्थर पर, एक चट्टान पर बैठा हुआ एक फकीर था। सम्राट ने उससे पूछा कि मैं उसको खोज रहा हूं जिसको खोजा नहीं जा सकता। कुछ पता बता सकते हो? उसने कहा, बहुत लंबी यात्रा है। वर्षों लग जाएंगे। मिल तो जाएगा वह आदमी, लेकिन वर्षों लग जाएंगे, खोजो। कब मिलेगा? तो उस फकीर ने कहा कि जब खोजने वाला भी मिट जाएगा। सम्राट ने कहा कि पागलों के चक्कर में पड़ गए। उसे खोजना है जो खोजा नहीं जा सकता, और तब खोज पाएंगे जब खुद ही मिट जाएंगे। लेकिन उस फकीर की आंखों ने मोह लिया और सम्राट उसकी बात मानकर खोज पर निकल गया। कहते हैं, तीस साल उसने खोज की। पूरे जापान का कोना-कोना खोज डाला। जहां फकीर, जहां संन्यासी, जहां साधु, भिखमंगों में, जहां-जहां उसे...। __ और तीस साल बाद अपने गांव वापस लौटा और उसी चट्टान पर वही फकीर बैठा था। सम्राट ने उसे देखा और पहचान लिया कि वह वही आदमी है जिसकी मैं खोज कर रहा हूं। उसने उसके पैर पकड़े और कहा कि तुम आदमी कैसे हो! अगर तुम ही थे वह, जो पहले दिन मुझे मिले थे, तो तीस साल मुझे भटकाया क्यों? ___ तो उस फकीर ने कहा, लेकिन तब मुझे तुम पहचान न सकते थे, क्योंकि तुम थे। परमात्मा के पास से भी आदमी को बहुत बार निकल जाना पड़ता है, क्योंकि सवाल तो पहचानने का है। यह तीस साल भटकना जरूरी था, ताकि तुम वहां पहुंच सको जो बिलकुल निकट था, तुम्हारे गांव के बाहर ही था। जिनका नाम नहीं, वे ऐसी घोषणा कर सकते हैं। जो इतने विनम्र हैं कि मिट गए हैं, वे ऐसी घोषणा कर सकते हैं। ऋषि कहता है, परमहंस का अंतिम लक्षण क्या है ? अंतिम चिह्न। अंतिम चिह्न यही है कि वे जो करते हैं, वही सही है; और वे जो नहीं करते हैं, वही गलत है। __ यह बहुत खतरनाक वक्तव्य है, टू डेंजरस। और इसलिए जब उपनिषदों का अनुवाद पश्चिम में पहली बार हुआ, तो पश्चिम के विचारकों ने कहा कि इनको पश्चिम में लाना खतरनाक है, डेंजरस है। इनमें बहुत एक्सप्लोसिव, इनमें बहुत बारूद छिपी है। वह बारूद आपको आगे खयाल में आएगी। तीसरे सूत्र में ऋषि कहता है, कामदेव को रोकने में वे पहरेदार जैसे होते हैं। 738
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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