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________________ निर्वाण उपनिषद-अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस वह असली मालूम पड़ता रहे। जिंदगी की सारी बुराई, जिंदगी की सारी भूल-हमारे भीतर के वह जो परमहंस का सोया होना है, वही है। एक बार उसका आविर्भाव हो जाए तो गलत को छोड़ना नहीं पड़ता। गलत को जान लेना कि वह गलत है, गलत का छूट जाना हो जाता है। सही को पकड़ना नहीं पड़ता। सही का सही दिखाई पड़ जाना, सही का पकड़ना हो जाता है। गलत को कोई पकड़ ही नहीं सकता। वह असंभव है। अगर गलत को भी पकड़ना हो तो उसमें सही की भ्रांति पैदा करनी पड़ती है। और सही की भ्रांति पैदा करनी हो तो परमहंस का सोया होना जरूरी है। तो ऋषि कहता है, मैं परमहंस हूं। इससे घोषणा से काम शुरू करता है। निश्चित ही यह पहला सूत्र होना चाहिए। यह पहला सूत्र होना चाहिए आध्यात्मिक ज्यामिति का कि मैं परमहंस हूं। क्योंकि फिर सार और असार में फर्क किया जा सकेगा, भेद किया जा सकेगा। दूसरे सूत्र में ऋषि कहता है, संन्यासी अंतिम स्थिति रूप चिह्न वाले होते हैं। मैं परमहंस हूं। संन्यासी कौन है? संन्यासी वह है जो परमहंस के अंतिम चिह्नों वाला होता है। परमहंस के अंतिम चिह्न क्या हैं? परमहंस का पहला चिह्न क्या है? परमहंस का पहला चिह्न है, सार और असार में भेद। परमहंस का अंतिम चिह्न है, भेद भी नहीं, जीना। परमहंस का पहला चिह्न है, सार और असार के भेद का अभ्यास। परमहंस का अंतिम चिह्न है, अभ्यास भी नहीं। साधारण साधक जब यात्रा शुरू करता है तो उस बात को करने की कोशिश करता है, जो ठीक है। उसको छोड़ने की कोशिश करता है, जो ठीक नहीं है। लेकिन साधक जब सिद्ध हो जाता है, तब हम ऐसा नहीं कह सकते कि सिद्ध, जो गलत है, उसको नहीं करता और जो सही है, उसको करता है। सिद्ध का अर्थ होता है कि वह जो करता है, वही सही है और जो नहीं करता, वही गलत है। अंतिम लक्षण। प्राथमिक लक्षण, जो सही है वह हम करेंगे, जो गलत है वह न करेंगे। अंतिम लक्षण, हम जो करेंगे, वही सही है, हम जो नहीं करेंगे, वही गलत है। __ संन्यासी परमहंस के अंतिम लक्षण वाले होते हैं। वे वही करते, वे वही कर पाते, वही उनका स्वभाव हो जाता, जो सही है। रिझाई एक फकीर हुआ जापान में। अपने गुरु से उसने पूछा कि सही क्या है, गलत क्या है? तो उसके गुरु ने कहा, मैं जो करता हूं उसका ठीक से निरीक्षण कर। जो मैं करता हूं, वह सही है, जो मैं नहीं करता, वह गलत है। रिझाई ने अपने गुरु को कहा कि क्या आपसे कभी गलती नहीं होती? गुरु ने कहा, अगर मैं होता तो गलती हो सकती थी। वह आदमी अब न रहा जिससे गलती हो सकती थी। मैं बचा नहीं, जिससे गलती हो सकती थी। कौन करेगा गलती? मैं हूं नहीं। और अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा गलती कर सकता है, तो फिर गलती ही सही है। हिम्मतवर लोग। इतना विनम्र आदमी था यह रिझाई का गुरु। इतना विनम्र आदमी था कि जापान का सम्राट उत्सुक था किसी को गुरु बनाने के लिए। तो उसने न मालूम कितने साधु-संन्यासियों को बुलाया, लेकिन कोई उसे जंचा नहीं। फिर उसने बड़ी खोज की तो किसी ने उसे कहा कि एक ही आदमी 37 17
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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