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________________ निर्वाण उपनिषद-अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस चेष्टा है। ऋषि बड़ी विनम्रता से कहता है कि मैं सार और असार को अलग करने में समर्थ हूं। एक अर्थ। ___दूसरा अर्थः ऋषि जब कहता है, मैं परमहंस हूं, तो सिर्फ अपने लिए ही नहीं कह रहा है। जो भी अपने को मैं कह सकते हैं, वे परमहंस हो सकते हैं। जहां-जहां मैं है, वहां-वहां परमहंस छिपा है। उसका उपयोग करें, न करें, वह आपकी मर्जी। सार-असार को अलग करें, न करें, वह आपकी मर्जी है। __ लेकिन क्या आपने कभी खयाल किया है कि जब आप असत्य बोलते हैं, तब आपके भीतर कोई जानता है कि असत्य है? जब आप सत्य बोलते हैं, तब कोई आपके भीतर जागा हुआ जानता है कि सत्य है? कभी आपने खयाल किया है कि भीतर किसी बिंदु पर आप चीजों के बीच फासले को सदा जानते हैं? बात और कि अपने को धोखा दे लेते हैं, बात और कि अपने को समझा लेते हैं, बात और कि आदत बना लेते हैं भ्रांति की। लेकिन कितनी ही गहरी आदत हो, एक भीतर कोई दीया जलता ही रहता है सदा, जो बताता रहता है, कहां प्रकाश है और कहां अंधकार है। उस दीए का नाम परमहंस है। वह सबके भीतर है। वह बुरे से बुरे आदमी के भीतर उतना ही है, जितना भले से भले आदमी के भीतर है। उसके अनुपात में कोई भेद नहीं है। वह पापी से पापी के भीतर उतना ही है, जितना पुण्यात्मा के भीतर है। जो फर्क है, वह उस भीतर की ज्योति का नहीं है, उस परमहंस का नहीं है। जो फर्क है, वह उस परमहंस को झुठलाने का, उस परमहंस को इंकार करने का। हम चाहें तो अपने को प्रवंचना में डालते रह सकते हैं। जिस दिन हम चाहें, प्रवंचना को तोड़ सकते हैं। क्योंकि हम कितनी ही प्रवंचनाएं करें, हम उस परमहंस के स्वभाव को विकृत नहीं कर पाते हैं। ___ इसलिए ठीक अर्थों में कोई आदमी कभी पापी नहीं हो पाता। कभी पापी नहीं हो पाता। कितना ही पाप करे, फिर भी उसके भीतर एक निष्पाप तल सदा ही बना रहता है। और इसलिए अक्सर यह घटना घटती है कि बड़े पापी क्षण में निष्पाप में प्रवेश कर जाते हैं। क्योंकि जिन्हें पाप का बहुत अनुभव होता है। उसके साथ ही उन्हें भीतर के निष्पाप बिंदु का भी अनुभव होता है। कंट्रास्ट! जैसे कि सफेद दीवार पर काली रेखा कोई खींच दे, या काली दीवार पर कोई सफेद रेखा खींच दे। पापी को अपने भीतर के निष्पाप बिंदु का बड़ा गहरा अनुभव होता है। साफ दिखाई पड़ता है। और इसलिए जिनको हम मीडियाकर कहें—जो न पापी होते हैं, न पुण्यात्मा होते हैं, जो बड़े समन्वयी होते हैं, जो थोड़ा पाप कर लेते हैं, थोड़ा पुण्य करके बैलेंस करते रहते हैं- ऐसे लोगों की जिंदगी में क्रांति मुश्किल से घटित होती है, क्योंकि कंट्रास्ट नहीं होता। न पाप होता है, न निष्पाप का बोध होता है। दोनों फीके हो जाते हैं। दोनों फीके हो जाते हैं। ___ इसलिए अगर कभी गहरे पापी की आंखों में झांकें, तो उसमें बच्चे की आंखें दिखाई पड़ जाएंगी। लेकिन एक साधारण आदमी के, जो पाप करना भी चाहता है, समझा भी लेता है, नहीं भी करता है; पाप भी कर लेता है, सम्हालने के लिए पुण्य भी कर लेता है, हिसाब-किताब बराबर रखता है, ऐसे आदमी की आंखों में सदा कनिंगनेस, चालाकी दिखाई पड़ेगी, बच्चे की सरलता दिखाई नहीं पड़ेगी। वह जो भीतर परमहंस है, वह तो सबके भीतर है। वह नष्ट नहीं होता। किसी भी क्षण में उसे पाया जा सकता है और छलांग लगाई जा सकती है। उस छलांग के लिए ऋषि पहले यह घोषणा करता है कि मैं परमहंस हूं। यह घोषणा सबकी तरफ से है। यह सिर्फ ऋषि के मैं की घोषणा नहीं है। यह जो भी अपने 357
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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