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निर्वाण उपनिषद-अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस
हुआ है, कटा हुआ है, निखारा हुआ है। बहुत छोटा उपनिषद है। एक-एक शब्द में बात कहने की कोशिश की गई है। क्योंकि जितने कम शब्द हों, उतने कम भूल की संभावना है।
सूफियों के पास एक किताब है। उस किताब का नाम है, द बुक आफ द बुक्स, किताबों की किताब। और उसमें लिखा कुछ भी नहीं है। खाली है। उसमें कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। उसको छापने को कोई प्रकाशक राजी नहीं था। छापकर भी क्या करिएगा! और कौन पागलपन में पड़े उसको छापने के? और छापकर उसको खरीदेगा कौन? जो भी उसको भीतर देखेगा, उसमें कुछ है ही नहीं।
अभी एक प्रकाशक ने हिम्मत की है। पर उसने भी इसलिए हिम्मत की कि वह जो शून्य है किताब, मोहम्मद का एक वंशज उस पर छोटी सी एक टिप्पणी लिखने को राजी हो गया। इदरिस शाह ने एक छोटी सी भूमिका लिखी, इंट्रोडक्शन। वह जो खाली किताब है, जिसमें कुछ भी नहीं है, उसके लिए एक भूमिका लिखी दस-बीस पन्नों की। तो बीस पन्नों में भूमिका है और दो सौ पन्ने खाली हैं। अभी वह किताब छपी है। . अनेक लोग उसको भूल में खरीद लेते हैं, क्योंकि वे पहले भूमिका देखते हैं। कौन पूरी किताब देखता है! जब वे भूमिका के बाद किताब पर पहुंचते हैं तो वहां तो बिलकुल खाली है। भूमिका में उसने यह समझाने की कोशिश की है कि किताब खाली क्यों है। लेकिन मैं मानता हूं कि इदरिस शाह ने अन्याय किया। पांच सौ, सात सौ साल से हिम्मतवर लोग उसे खाली रखे थे, उसको थोड़ा भरा। और जब किताब लिखने वालों ने ही खाली रखी थी तो उसके लिए किसी भूमिका की जरूरत नहीं है। वह खाली ही होनी चाहिए। लेकिन छापने को कोई राजी नहीं था। पढ़ने को भी कोई राजी नहीं होता, इसलिए बेचारे इदरिस शाह को गलत काम करना पड़ा।
एक अर्थ में तो ऋषि गलत काम करने जा रहा है, इसीलिए परमात्मा से रक्षा मांगता है। गलत, गलत यह है कि जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, उसको वह शब्द में कहेगा। ऋषि का वश चले तो किताब को खाली छोड़ दे। लेकिन तब वह आपके काम की न होगी। क्योंकि खाली किताब को पढ़ना बड़ी कठिन बात है। और जो खाली किताब को पढ़ने में समर्थ हो जाता है, फिर उसे और कोई किताब पढ़ने की इस दुनिया में जरूरत नहीं रह जाती।
ऋषि कहता है, व्याख्यान शुरू करते हैं, व्याख्या शुरू करते हैं निर्वाण उपनिषद की।
इसमें एक और बात छिपी है। इसमें यह बात छिपी है कि ऋषि निर्वाण उपनिषद नहीं लिख रहा है, सिर्फ निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान कर रहा है। यह बहुत और अदभुत मामला है। इसका मतलब यह हुआ कि निर्वाण उपनिषद तो शाश्वत है, वह तो सदा से चल रहा है, ऋषि सिर्फ व्याख्या करते हैं। जब निर्वाण उपनिषद नहीं था, क्योंकि जिसे हम आज निर्वाण उपनिषद कहते हैं, वह तो इसी ऋषि ने कहा है। पर वह कहता है, हम सिर्फ व्याख्या कर रहे हैं उसकी, जो सदा से है। हम तो सिर्फ उसका व्याख्यान कर रहे हैं, जो सदा से है। इसलिए किसी ऋषि ने उपनिषद का अपने आप को लेखक नहीं माना, सिर्फ व्याख्यान करने वाला माना।
वह सदा से है, सत्य सदा से है, हम उसकी व्याख्या करते हैं। हमारी व्याख्या गलत भी हो सकती है, उससे सत्य गलत नहीं होता। हमारी व्याख्या भूल-चूक भरी हो सकती है, उससे सत्य भूल-चूक
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