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________________ निर्वाण उपनिषद हैं, जो अव्याख्य है। जो नहीं कहा जा सकता, उसे अब कहने चलते हैं। जो सिर्फ जाना ही जा सकता है और जीया ही जा सकता है, उसे भी अब शब्द देते हैं। बुद्ध के पास कोई जाता था तो बुद्ध बहुत से प्रश्नों के उत्तर में कह देते थे—अव्याख्य, और चुप हो जाते थे। वे कह देते थे, नहीं, इसकी व्याख्या नहीं होगी। ऐसे उन्होंने कुछ प्रश्न तय कर रखे थे जिन्हें पूछते ही वे इतना ही कह देते थे अव्याख्य, इसकी व्याख्या नहीं होगी। लोग उनसे पूछते थे कि क्यों नहीं होगी? क्योंकि लोग सोचते हैं कि जो प्रश्न पूछा जा सकता है, उसका उत्तर होना ही चाहिए। लोग सोचते हैं कि चूंकि हमने प्रश्न बना लिया, इसलिए उत्तर होना ही चाहिए। ___आपके प्रश्न बना लेने से यह जरूरी नहीं है कि उत्तर हो। सच तो यह है कि जिस प्रश्न का उत्तर न हो, जानना कि उस प्रश्न के बनाने में कहीं कोई बुनियादी भूल हुई है। लेकिन भाषा ऐसी भ्रांति पैदा कर सकती है कि प्रश्न बिलकुल रिलेवेंट है, संगत है। __ अब कोई आदमी पूछ सकता है कि सूरज की किरण का स्वाद कैसा है? प्रश्न में क्या गलती है? प्रश्न बिलकुल ठीक है। कोई आदमी पूछ सकता है कि प्रेम की ध्वनि कैसी है? प्रश्न बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है। लेकिन प्रेम में कोई ध्वनि नहीं होती। असंगत है। प्रेम का ध्वनि-निर्ध्वनि से कोई संबंध नहीं है। सूर्य की किरण में स्वाद नहीं होता, न बेस्वाद होती है। असंगत है, स्वाद का कोई संबंध ही नहीं है। ___ मेटाफिजिक्स, दर्शनशास्त्र बहुत से फिजूल प्रश्न पूछता है। इसीलिए तो दर्शनशास्त्र किसी प्रश्न का हल नहीं निकाल पाता। मगर प्रश्न भाषा में मालूम पड़ता है, बिलकुल ठीक है। एक आदमी पूछ लेता है कि इस जगत को किसने बनाया? बिलकुल ठीक सवाल है, बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है। सवाल में क्या गलती है? लेकिन एकदम गलत है। गलत क्यों है? गलत इसलिए है कि बनाने का सवाल उठाना ही एक ऐसा सवाल उठाना है जिसको कोई भी जवाब हल न कर पाएगा। क्योंकि अगर हम कहें, परमात्मा ने बनाया तो सवाल परमात्मा के पीछे खड़ा हो जाएगा कि परमात्मा को किसने बनाया? अगर हम और कोई नंबर दो का परमात्मा खोजें तो सवाल उसके पीछे खड़ा हो जाएगा कि इस नंबर दो के परमात्मा को किसने बनाया? यह सवाल किसी भी जवाब के पीछे खड़ा हो जाएगा। ऐसा कोई जवाब नहीं हो सकता जिसके लिए यह सवाल न खड़ा किया जा सके। फिर जवाब का कोई मतलब नहीं रह जाता। इसालए अगर बुद्ध से आप पूछेगे, इस जगत को किसने बनाया? तो वे कहेंगे, अव्याख्य। इसकी व्याख्या नहीं होती। इसलिए नहीं कि बुद्ध को व्याख्या का पता नहीं है। बल्कि इसलिए कि आप एक गलत सवाल पूछ रहे हैं। और गलत सवाल का जवाब जब भी दिया जाएगा, वह सवाल का जवाब उतना ही गलत होगा, जितना सवाल था। और हम बहुत गलत सवाल पूछते हैं और हमारे बीच पूछने वालों से भी ज्यादा गलत जवाब देने वाले लोग मौजद हैं। वे.तैयार ही हैं कि आप पछो और वे दें। और जमीन गलत जवाबों से बहुत परेशान है, बहुत पीड़ित है। ऋषि कहता है कि अब हम निर्वाण उपनिषद के व्याख्यान में प्रवृत्त होते हैं। यह बड़ा असंभव कार्य अपने हाथ में लेना है। इंच-इंच फूंककर पैर रखना पड़ेगा। शब्द-शब्द तौलकर बोलना पड़ेगा। इसलिए निर्वाण उपनिषद बहुत अदभुत उपनिषद है। इसमें एक-एक शब्द तुला 732
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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