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________________ निर्वाण उपनिषद-अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस यह रक्षा की आकांक्षा, यह परमात्मा एक छाया की तरह चारों तरफ आपको घेर ले और आपके साथ चलने लगे! और जब आप सत्य बोलें तब भी जानकर बोलें कि वह आपका सत्य है, और जब तक परमात्मा का उसको सहयोग न हो तब तक उसका कोई मूल्य नहीं है। और जब आप बोलने जाएं तब जानें कि जो आप बोल रहे हैं वह सीमित है. और जब तक असीम पीछे न खड़ा हो, तब तक उसका कोई भी मूल्य नहीं है। तो ऋषि प्रार्थना करता है इस शांति-पाठ में कि मेरी रक्षा करना। ओम शांति, शांति, शांति। यह शांति-पाठ पूरा हुआ। निर्वाण उपनिषद कहने के पहले परमात्मा से यह प्रार्थना कि मैं जो बोलूं उसमें मेरी रक्षा करना, बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अब ऋषि बोलेगा। अब वह कहेगा। शब्दों में ही कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि निःशब्द में नहीं कहा जा सकता, लेकिन निःशब्द में सुनने वाला खोजना बहुत मुश्किल है। इसलिए मजबूरी में शब्द में कहना पड़ता है। और अगर लोगों को निःशब्द के लिए तैयार भी करना हो, तो भी शब्द के ही सहारे उनको निःशब्द में ले जाना पड़ता है। कठिन है, विपरीत मालूम होता है, लेकिन संभव है। वीणा का एक तार छेड़ दूं। वीणा के तार से ध्वनि होगी पैदा, उसे सुनते रहें, सुनते रहें, सुनते रहें। धीरे-धीरे ध्वनि खोती जाएगी, निर्ध्वनि प्रकट होने लगेगी। सुनते रहें। ध्वनि क्षीण होने लगेगी। लेकिन जब ध्वनि क्षीण हो रही है, तब जानना कि अनुपात में साथ ही निर्ध्वनि प्रखर हो रही है। जब ध्वनि मिट रही है, तब निर्ध्वनि जन्म रही है। जब ध्वनि खो रही है, तब निर्ध्वनि का आगमन हो रहा है। फिर थोड़ी देर में ध्वनि खो जाएगी. तब क्या शेष रह जाएगा? __ अगर कभी ध्वनि का पीछा किया है, तो आपको पता चल जाएगा कि ध्वनि निर्ध्वनि में ले जाती है। शब्द निःशब्द में ले जाते हैं। संसार मोक्ष में ले जाता है। अशांति भी शांति में ले जाने के लिए सेतु बन जाती है। बीमारी भी सीढ़ी बन जाती है स्वास्थ्य के मंदिर तक पहुंचने के लिए। विपरीत का उपयोग करना है। पर उपनिषद की घोषणा करने के पहले, क्योंकि महत घोषणा ऋषि करेगा। ___ जीवन ने जो भी गहराइयां छुई हैं और ऊंचाइयों के दर्शन किए हैं, जीवन ने जो भी स्वर्णकलश देखे हैं सत्य के, ऋषि इस आने वाले शब्दों में उनकी घोषणा करेगा। वह परमात्मा से कहता है, मेरी रक्षा करना। भूल-चूक हो सकती है। शब्द वह कह सकते हैं जो मैं नहीं कहना चाहता था। सुनने वाले वह सुन सकते हैं जो मैंने कहा नहीं था। समझने वाले वह समझ ले सकते हैं जो प्रयोजित ही नहीं था। मेरी रक्षा करना। ___ क्योंकि कहीं सत्य कहने जाऊं और असत्य को कहने वाला न बन जाऊं। कहीं सत्य को प्रकट करूं और असत्य को देने वाला न बन जाऊं। चाहूं कि लोगों को आनंद बांट दूं, और कहीं ऐसा न हो कि उनकी झोलियों में दुख पहुंच जाए। मेरी रक्षा करना। पहला सूत्र निर्वाण उपनिषद काः अब निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान करते हैं। ऋषि कहता है, अब उसकी चर्चा करते हैं, जिसकी चर्चा कठिन है। अब उसकी व्याख्या में लगते 315
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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