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निर्वाण उपनिषद – अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस
सत्य हमारा ही सत्य होगा, आदमी का सत्य आदमी का सत्य होगा । और आदमी क्या उस विराट सत्य को छू पाएगा, आदमी रहते हुए !
इसलिए ऋषि कहता है, प्रभु, मेरी रक्षा करना । सत्य मैं बोलूंगा, जितनी मेरी सामर्थ्य है; सत्य मैं खोजूंगा, जितनी मेरी सामर्थ्य है। लेकिन मेरी सामर्थ्य मुझे पता है। तू रक्षा करना ।
वक्ता की रक्षा करो, मेरी रक्षा करो।
वक्ता को क्यों बीच में ले आया, मेरी रक्षा पर्याप्त थी! मेरी रक्षा में वक्ता की रक्षा भी आ जाती थी। लेकिन विशेष रूप से ऋषि कहता है दो-दो बार, वक्ता की रक्षा करो।
यह बहुत मजे की बात है । सत्य का अनुभव जब होता है किसी को, तब सत्य जितना बड़ा होता है और जब वही व्यक्ति सत्य को बोलने जाता है तो उतना ही बड़ा नहीं रह जाता, और भी सिकुड़ जाता है।
एक तो सत्य है बहुत विराट और आदमी बहुत छोटा । जब आदमी सत्य को देखता है तो वह ऐसे ही जैसे एक छोटे से पानी के डबरे में चांद का प्रतिबिंब बनता है। बहुत छोटा आदमी जब सत्य को देखता है, तो सत्य उसके ही अनुपात में छोटा हो जाता है। लेकिन दूसरी दुर्घटना घटती है तब, जब वह सत्य को बोलने जाता है। वह और बड़ी दुर्घटना है। फिर तो उतना भी नहीं बचता, जितना उसने देखा था ।
परमात्मा का सत्य तो कितना है, पता नहीं । आदमी को जितना सत्य मालूम पड़ता है, उतना भी वाणी नहीं कह पाती। और सिकुड़ जाता है।
इसलिए ऋषि कहता है कि मेरी रक्षा करो कि मैं जब सत्य को जानूं तो ऐसा न समझ लूं कि यहीं पूरा हो गया। जानता रहूं कि शेष है, जानता रहूं कि शेष है, यात्रा बाकी है। जानता रहूं कि सागर को मैंने छू लिया, लेकिन सागर को पा नहीं लिया है। और सागर में मैं खड़ा हो गया, फिर भी सागर की सीमाएं मेरी हाथ की मुट्ठी में नहीं आ गई हैं। यह मैं जानता रहूं और जब मैं कहने जाऊं, जब मैं बोलने जाऊं, तब मेरी और भी रक्षा करना। क्योंकि शब्द सत्य को जिस बुरी तरह विकृत करते हैं, कुछ और विकृत नहीं करता। उसका कारण है।
सब शब्द कामचलाऊ हैं । सत्य को जब हम कामचलाऊ शब्दों में प्रकट करते हैं— और कोई शब्द हैं भी नहीं - तो वह जो कामचलाऊ दुनिया की दुर्गंध है, धूल है, वह सब सत्य के साथ जुड़ जाती है। वे कामचलाऊ शब्द हमारे ओंठों पर चल चलकर वैसे ही घिस गए हैं जैसे सिक्के चल चलकर घिस जाते हैं। उन्हीं शब्दों में सत्य को कहना पड़ता है, वह भी घिस जाता है।
फिर अनुभूति तो सदा ही गहन होती है, शब्द सदा छिछले होते हैं। बड़ी अनुभूतियां तो छोड़ दें, छोटी अनुभूतियां, आपके पैर में कांटा गड़ गया है और पीड़ा हो रही है। लेकिन जब आप किसी को बताते हैं कि मेरे पैर में पीड़ा हो रही है, तो क्या आप पीड़ा को बता पाते हैं ? और जब आप यह कहते हैं कि मेरे पैर में पीड़ा हो रही है, तो क्या वह आदमी समझ पाता है कि कैसी पीड़ा हो रही है !
हां, अगर उसके पैर में भी कांटा गड़ा हो, तब तो बात और है। अगर उसके पैर में कांटा न गड़ा हो, तब कुछ भी समझ में नहीं आता। जिस आदमी ने जीवन में किसी को प्रेम न किया हो, उसे प्रेम की बात बिलकुल समझ में नहीं आती। जिस आदमी ने जीवन के संगीत को कभी अनुभव न किया हो और जिसके जीवन में कभी वह जो चारों ओर छाया हुआ काव्य है अस्तित्व का, वह प्रवेश न कर गया हो,
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