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निर्वाण उपनिषद
लेकिन ऋषि भलीभांति जानता है कि आदमी का सत्य जरूरी नहीं कि परमात्मा का सत्य हो । आदमी इतना कमजोर और इतना विकार से भरा, इतना अंधेरे में पड़ा है कि वह जो देखेगा, वह हो सकता है, उसे सत्य मालूम पड़े और बिलकुल असत्य हो। इसलिए सत्य मैं बोलूंगा, फिर भी मेरी रक्षा करो। वह
स्वाभाविक है, उसके अनुसार मैं चलूंगा, लेकिन फिर भी मेरी रक्षा करो। क्योंकि जिसे मैं स्वाभाविक समझंगा, वह है स्वाभाविक, नहीं है स्वाभाविक, यह निर्णय मैं कैसे करूंगा । सत्य बोलकर भी रक्षा की आकांक्षा समर्पण है । ऋत के अनुसार चलकर भी रक्षा की आकांक्षा समर्पण है।
ये ऋषि यह कह रहा है कि मैं सब कुछ भी करूं, तो भी गलत हो सकता है। तुम्हारी रक्षा की जरूरत पड़ती ही रहेगी। इसमें दोहरी बातें हैं। घोषणा है अपनी तरफ से कि मैं सत्य बोलूंगा और यह भी घोषणा है अपनी तरफ से कि मेरे सत्य के सत्य होने का भरोसा क्या है।
सुना है मैंने एक नगर में एक ईसाई पादरी और एक यहूदी पुरोहित पड़ोसी थे। कभी-कभी उनकी बातचीत हो जाती थी। तो एक दिन ईसाई पादरी ने यहूदी पुरोहित को कहा कि हम दोनों ही तो ईश्वर का काम करते हैं । फिर झगड़ा कैसा ! फिर विरोध कैसा! मैं भी तो सत्य का ही काम करता हूं, तुम भी सत्य का काम करते हो, फिर विवाद क्या है? यहूदी ने कहा कि बात तो ठीक है, हम दोनों ही सत्य का काम करते हैं। लेकिन तुम उस सत्य का काम करते हो, जैसा तुम्हें दिखाई पड़ता है; और मैं उस सत्य का काम करता हूं, जैसा परमात्मा को दिखाई पड़ता है। इसलिए विवाद है।
कौन तय करेगा कि कौन सा सत्य परमात्मा का सत्य है। अगर हम तय करेंगे तो वह भी हमारा ही तय करना है।
इसलिए महावीर जैसे व्यक्ति ने, जिसने कि सत्य को पहला धर्म और सत्य पर ही सारे जीवन को आधारित करने की चेष्टा की, किसी को भी असत्य कहना बंद कर दिया था। अगर कोई बिलकुल सरासर झूठ बोल रहा हो, सरासर झूठ - जैसे कि सूरज निकला हो और कोई कहता हो कि आधी रात है - तो भी महावीर कहते थे कि तुम्हारी बात में कुछ सत्य तो है । तो भी। क्योंकि महावीर कहते थे कि माना अभी आधी रात नहीं है, लेकिन यही सूरज आधी रात को थोड़ी देर में ले आएगा। इसी में छिपी है, इस भरी दोपहरी में आधी रात छिपी है। तुम्हारी बात में भी थोड़ा सत्य है ।
अगर कोई जीवित व्यक्ति को भी कह देता है कि यह मरा हुआ है, तो महावीर कहते, तुम्हारी बात में थोड़ा सत्य है, क्योंकि जिसे हम जीवित कह रहे हैं, यह थोड़ी देर में मर ही तो जाएगा। और जो मर ही जाएगा, उस पर क्या विवाद करना कि वह अभी मरा है कि नहीं मरा है। मर ही जाएगा तो मरा ही है । तुम्हारी बात में भी सत्य है ।
महावीर का विचार बहुत प्रभावी नहीं हो सका, क्योंकि किसी भी विचार के प्रभावी होने के लिए आग्रहशील लोग चाहिए - डागमेटिक, जो कहें, यही सत्य है। अब ऐसे आदमी की बात कौन सुनेगा
गा कि तुम भी सत्य हो, वह भी सत्य है, सभी सत्य हैं। ऐसे आदमी की बात में आग्रह न होने कारण पंथ का निर्माण बहुत मुश्किल है। अति कठिन है।
उपनिषदों का कोई पंथ निर्मित नहीं हुआ। उपनिषद बिलकुल ही गैर पांथिक हैं, नान सेक्टेरियन हैं। और उसका कारण है कि ऋषियों की पूरी चेष्टा यह है कि सत्य कहें, फिर भी इस बोध के साथ कि हमारा
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