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________________ शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा करोगे तो मन के पार कैसे जाओगे? तो मन और मजबूत हो जाएगा। तो ध्यान मत करना। अगर मन के पार जाना है तो ध्यान मत करना। और न मालूम कितने नासमझ यह सोचकर ध्यान नहीं करते कि के पार जाना है, ध्यान कैसे करें। और कभी भी यह नहीं सोचते कि न करने से मन के पार चले गए? न करने से पार गए नहीं करेंगे तो पार जान सकेंगे. तब बडी मश्किल खडी हो जाती है। ___तो चालीस-चालीस साल से कृष्णमूर्ति को सुनने वाले लोग हैं। पता नहीं अब वे क्या सुनते हैं, अब भी क्या सनते हैं उनसे। वह वही कह रहे हैं चालीस साल से। इधर पचास सालों में एक ही बात को चालीस साल तक अगर कोई आदमी कह रहा है तो वे कृष्णमूर्ति हैं—एक ही बात को सतत। चालीस साल से लोग बैठकर उनको सुन रहे हैं और वे बूढ़े हो गए हैं बैठे-बैठे। ऐसे लोग हैं, जिनकी जगह बंधी हुई है उनकी सभा में कि वह वहीं खंभे के पास, तो खंभे के पास चालीस साल से बैठ रहा है वह आदमी। मेरे एक मित्र ने कहा कि वह एक आदमी को देखते हैं, जो हरी टोपी लगाकर आता है। अस्सी साल का बूढ़ा है। दस साल से तो वही देख रहे हैं कि उसी जगह पर वह आकर बैठ जाता है। फिर वही सुनकर चला जाता है। ____ अगर मन के पार जाना है, तो कृष्णमूर्ति कहते हैं, मन से कैसे जाओगे? ध्यान किससे करोगे? मन से ही करोगे, तो मन के पार कैसे जाओगे? इसलिए ध्यान नहीं करना। मन के पार चले जाओ। ___लेकिन वह सुनने वाला कभी नहीं पूछता कि कृष्णमूर्ति को किससे सुन रहा है, मन से? तो अगर मन से ही सुनना है, तो मन के पार कैसे जाओगे? सुनते रहो चालीस साल, वही बने रहोगे। सुनोगे तो मन से ही। सुनने का तो और कोई उपाय ही नहीं है। यह मन से ही सुनना पड़ेगा। फिर बड़ी हैरानी होती है कि अगर मन से सुनकर कोई पार जा सकता है, तो मन से गुनकर क्यों नहीं पार जा सकता! और अगर मन से शब्दों को लेकर पार जा सकता है, तो मन से फिर प्रयोगों को लेकर पार क्यों नहीं जा सकता! कृष्णमूर्ति कहते हैं कि अगर ध्यान किया, तो मन की कंडीशनिंग हो जाएगी। लेकिन चालीस साल से एक आदमी बैठकर तुम्हारी ये बातें सुन रहा है, तो उसका मन कंडीशंड नहीं हो गया? यही बातें वह दोहराने लगा है। सच यह है कि जब तक हम मन में खड़े हैं, तब तक मन के पार जाने के लिए भी मन का ही उपयोग करना पड़ेगा। अगर मैं एक कमरे में हूं, माना कि जब कमरे में आया था तो चलकर कमरे में आया था, अब मैं सोच सकता हूं कि अगर मुझे कमरे के बाहर जाना है तो कमरे में कभी नहीं चलना चाहिए, क्योंकि चलकर मैं कमरे के भीतर आया था। लेकिन अगर कमरे के बाहर जाना हो तो थोड़ा तो कमरे में फिर से चलना पड़ेगा। उतना चलना पड़ेगा, जितना आप चलकर भीतर आए थे। कमरे में ही चलना पड़ेगा उतना। फर्क एक ही होगा कि चेहरा दूसरी तरफ होगा। जब आए थे तो दरवाजे की तरफ पीठ कर ली थी. दीवार की तरफ चेहरा था। अब जाते वक्त दरवाजे की तरफ चेहरा होगा, दीवार की तरफ पीठ होगी। चलना उतना ही पड़ेगा जितना चलकर भीतर आए थे। __ मन के बाहर जाने के लिए भी मन का उतना ही उपयोग करना पड़ता है जितना मन के भीतर आने के लिए किया था। जो मन के भीतर आने के लिए करता है उसके लिए मन अज्ञान का आधार बन जाता है, और जो मन के बाहर जाने के लिए उपयोग करता है उसके लिए मन ज्ञान का आधार बन जाता है। 217
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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