SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्वाण उपनिषद शास्त्र से नहीं है । सब शास्त्र वेद से ही निकलते हैं, ज्ञान से ही निकलते हैं। हिंदुओं के वेद की बात नहीं कर रहा हूं। क्योंकि वेद किसका हो सकता है! ज्ञान किसका हो सकता है! सब ज्ञान वेद से निकलता है । लेकिन कोई शास्त्र वेद को सीमित नहीं कर पाते, ज्ञान को सीमित नहीं कर पाते। मैं न कहूंगा, वेद- ज्ञान। ज्ञान काफी है। और वेद इसलिए नहीं कहता कि वेद से तत्काल हमें खयाल आता है उस संहिता का, उस संग्रह का, जिसे हम वेद कहते रहे हैं । ऋषि कह रहा है, तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो । साधारण साधु-संन्यासी तो लोगों को समझाते हैं कि मन अज्ञान का आधार है। यह वेद का आधार, ज्ञान का आधार मन ! निश्चित ही । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मन से जो ज्ञान मिलता है, उस पर जो रुक जाए, वह ज्ञानी है। मन सिर्फ एक जंपिंग बोर्ड, एक आधार है, जहां से छलांग लगानी पड़ती है अ- मन में । उसकी हम आगे बात करेंगे। नो-माइंड में। लेकिन जिसे अ-मन में जाना है, उसे भी मन को ही आधार बनाकर जाना पड़ता है। यहां बड़ी भूलें होती हैं। भूलें ऐसी हो जाती हैं कि एक आदमी सीढ़ी चढ़ता हो मकान की, तो हम उससे कहें कि तू सीढ़ी क्यों चढ़ रहा है, क्योंकि चढ़ जाने के बाद सीढ़ी छोड़नी पड़ेगी। और अगर आदमी तर्कवादी हो, बुद्धिवादी हो, अपने को इंटलेक्चुअल समझने की भूल में पड़ा हो, जैसा कि अधिक लोग पड़े होते हैं, तो वह राजी भी हो सकता है। वह कहेगा, ठीक है, जो सीढ़ी छोड़ ही देनी है उसे पकड़नी ही क्यों; उसे यहीं छोड़ दें । छोड़ दें, लेकिन आप नीचे ही रह जाएंगे। लेकिन तर्कवादी दूसरा रुख भी ले सकता है। तर्क हमेशा डबल एजड है, दोहरी धार है। तर्क दूसरा रूप भी ले सकता है। वह यह भी कह सकता है कि अच्छा, तो हम सीढ़ियां छोड़ेंगे ही नहीं । चढ़ेंगे जरूर, छोड़ेंगे नहीं। चढ़ जाए, छत आ जाए और वह कहे कि जिन सीढ़ियों पर इतनी मुश्किल से चढ़े हैं, अब उनको छोड़ देना उचित है क्या ? और जिन सीढ़ियों ने इतना साथ दिया, उनको छोड़ देना उचित है क्या ? अब हम न छोड़ेंगे, अब तो इन पर ही खड़े रह जाएंगे। नहीं, जो जानता है वह सीढ़ियों पर चढ़ता भी है और सीढ़ियों को छोड़ता भी है। इस जगत में सभी साधन पकड़ने पड़ते हैं और छोड़ने पड़ते हैं। साधन का अर्थ ही है, जिसे किसी स्थिति में पकड़ना पड़ता है और फिर किसी स्थिति में छोड़ देना पड़ता है। ध्यान भी पकड़ेंगे और छोड़ेंगे। प्रार्थना भी पकड़ेंगे और छोड़ेंगे। परमात्मा भी पकड़ेंगे और छोड़ेंगे। अंततः उस जगह पहुंच जाएंगे जहां कुछ छोड़ने को भी नहीं बचता और पकड़ने को भी नहीं बचता। वही निर्वाण है। तो ऋषि कहता है, हे मन और वाणी ! तुम मेरे ज्ञान के आधार हो । जो अभी मैं जानता हूं, तुम्हारे द्वारा ही जानता हूं। अगर मैं यह भी जानता हूं कि अभी मैं नहीं जान पाया हूं, तो भी तुम्हारे ही द्वारा जानता हूं। अगर मुझे यह भी पता चल रहा है कि तुम्हारे द्वारा मैं सब कुछ न जान पाऊंगा, तो यह भी तुम्हारे द्वारा ही जानता हूं। यहां बड़ी भूलें होती हैं, जैसे कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, वह इसी सूत्र से संबंधित है। इसके विपरीत जो भूल हो जाती है, वही है। अगर कृष्णमूर्ति से पूछें कि ध्यान करें ? तो वे कहेंगे, ध्यान! ध्यान किसलिए ? तो आप कहेंगे, ताकि मन के पार चला जाऊं । कृष्णमूर्ति पूछेंगे, ध्यान करोगे किससे, मन से ? मन से 20
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy