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________________ निर्वाण उपनिषद इसलिए ऋषि कहता है, तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो। इसलिए मेरे ज्ञान का नाश न करो। यद्यपि जब भीतर आने का अभ्यास मजबूत होता है, तो मन कहता है, बाहर जाने की क्या जरूरत? इसमें मन का कोई कसूर नहीं है। हमने ही उसका अभ्यास करवाया है-हमने ही। तो मन तो सिर्फ यांत्रिक हो जाता है। ____ हम ही रोज अपने मुंह में सिगरेट रखकर पीते रहे हैं। और बड़ी मुश्किल से अभ्यास करवाया, पहले दिन पीना शुरू किया था तो खांसी आ गई थी, तकलीफ हुई थी। तिक्त कड़वाहट फैल गई थी मुंह में, सिगरेट जहर मालूम पड़ी थी। मन को अभ्यास करवाते चले गए। फिर सिगरेट का अभ्यास मजबूत हो गया। अब हम कहते हैं, छोड़ना है, तो मन कहता है, नहीं। अब तो मजा आने लगा। और यह मजा हमने ही लाया है। यह मजा हमने ही लाया है। मन ने तो पहले ही दिन कहा था कि क्या कर रहे हो? यह क्या कर रहे हो? हमने सुना नहीं, पीए चले गए। अब मन फिर कहेगा कि यह क्या कर रहे हो? छोड़ रहे हो? अब तो रस आने लगा, अब मत छोड़ो। ' तो मन बाधा डालेगा बाहर जाने में। इसलिए ऋषि उससे भी प्रार्थना करता है कि मेरे ज्ञान का नाश न करो। यह भी प्रार्थना है मन से। यह बड़ी अदभुत है। कभी आपने की न होगी, पर करेंगे तो अदभुत अनुभव होंगे। जब आपके ओंठ सिगरेट मांगने लगें तो प्रयोग करके देखना। अपने ओंठ से प्रार्थना करना कि मेरे ओंठ, प्रार्थना करता हूं कि सिगरेट मत मांगो। और अगर यह प्रार्थना हार्दिक है तो ओंठ तत्काल शिथिल हो जाएंगे और मांग बंद कर देंगे। कामवासना उठे तो अपनी कामवासना के केंद्र से कहना कि मेरे कामवासना के केंद्र, कामवासना मत मांगो। मुझे सहायता दो। और आप तत्काल हैरान होंगे कि आपकी . प्रार्थना के साथ ही काम-केंद्र शिथिल हो जाएगा। पर हमने प्रार्थना तो की नहीं। और अपने ही शरीर से प्रार्थना करेंगे तो अहंकार को बड़ी पीड़ा होगी, कि मैं, और अपने ही शरीर से प्रार्थना करूं! संकोच लगेगा। लेकिन शरीर की गुलामी करने में कभी संकोच नहीं लगता! और शरीर के पीछे-पीछे चलने में कभी संकोच नहीं लगता! और शरीर की मानकर सब तरह की मूढ़ताएं करने में कभी संकोच नहीं लगता! लेकिन जिस शरीर को आपने मालिक बना लिया है, अब आप उसको प्रार्थना से ही परसुएड कर सकते हैं। मन तो बन गया है मालिक। तो ऋषि उसे परसण्ड करता है. फसलाता है कि मेरे मन, बाधा मत डाल। मेरे ज्ञान को नाश मत कर। मैं रात-दिन इसी ज्ञान में ही तो अभ्यास कर रहा हूं, व्यतीत कर रहा हूं, तू मुझे साथ देना। इसका इतना ही अर्थ है कि जिस व्यक्ति को परम सत्य की खोज में जाना हो, उसको अपनी सारी इंद्रियां, अपना मन, अपना शरीर, सबके साथ प्रार्थना करके सहयोग निर्मित कर लेना चाहिए। वह सहयोग निर्मित हो जाए तो वे सब साथी, सहयोगी, संगी हो जाते हैं। अन्यथा, अकारण ही उनसे विरोध आएगा और बाधा पड़ेगी। इतना इस सूत्र के संबंध में। एक दो-तीन बातें सुबह के ध्यान के संबंध में, क्योंकि कल सुबह से हम यात्रा पर करने की निकलेंगे। तो तीन बातें आपको कह देनी हैं। 722
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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