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निर्वाण रहस्य अर्थात सम्यक संन्यास, ब्रह्म जैसी चर्या और सर्व देहनाश
जाएंगे। उसके बेटे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेंगे।
भारत के ऋषि कहते थे कि जब बेटा घर में पत्नी के साथ आ जाए, तब भी पिता बच्चे पैदा करता जाए, इससे बेहूदी और कोई बात नहीं हो सकती । है भी बेहूदी बात। बेटा जब भोग में उतर जाए, तब बाप भोगना जारी रखे, असंगत है। जरा भी इसमें समझदारी नहीं दिखाई पड़ती। और फिर भी बाप चाहे कि बेटा आदर दे, तो मूढ़ता की हद हो गई। कोई वजह नहीं। लगता तो ऐसा है, बेटा आपके कंधे में हाथ रखे और ट्विस्ट करे, क्योंकि दोनों की योग्यता बराबर है। बेटा भी वही कर रहा है, बाप भी वही कर रहा है। बेटा भी खड़ा है क्यू में सिनेमाघर के, बाप भी खड़े क्यू में सिनेमाघर के । फिर आदर, फिर श्रद्धा, फिर सम्मान, वह अगर खो जाएं, तो कसूर किसका है ?
नहीं, नियम यह था कि बेटा जिस दिन विवाहित होकर घर आए, उस दिन बाप का वानप्रस्थ हो गया, उस दिन मां का वानप्रस्थ हो गया। उसी दिन हो गया। बात खतम हो गई। जब बेटे भोगने के जगत आ गए, तो बाप को अब त्यागने के जगत में जाना चाहिए। नहीं तो फासला क्या है? फर्क क्या है ? भेद क्या है ?
पचास वर्ष में व्यक्ति वानप्रस्थ हो जाएगा। वानप्रस्थ का अर्थ है, जिसका मुंह वन की तरफ हो गया। अभी वन में गया नहीं है। अभी जंगल चला नहीं गया, क्योंकि जो बेटे अभी गुरुकुल से वापस आए हैं, बाप की कुछ जिम्मेवारी है कि उनको वह अपने जीवन के अनुभव दे दे। अभी अगर वह जंगल भाग जाए, तो बेटों और बाप के बीच, पीढ़ियों के बीच जो ज्ञान का संक्रमण होना चाहिए, ट्रांसमिशन होना चाहिए, वह नहीं हो पाएगा। अभी बेटे गुरुकुल से आए हैं, अभी वे ज्ञान की बातें लेकर आए हैं, शब्द सीखकर आए हैं, शास्त्र सीखकर आए हैं, शक्ति लेकर आए हैं, अभी चमत्कृत हैं जीवन से, अभी ऊर्जा से भरे हैं युवा अवस्था के, अभी पिता ने जो पच्चीस वर्षों में और जाना है, वह सब उसे सिखा दे ।
तो पच्चीस वर्ष तक माता और पिता वानप्रस्थ होंगे, वन की तरफ जाते हुए। चेहरा उनका अब जंगल की तरफ होगा, पीठ घर की तरफ हो जाएगी। पच्चीस वर्ष वे रुकेंगे ऐज़ ए ट्रस्टी, कि बेटे को, जो उन्होंने जाना है, सौंप दें।
लेकिन जब वे पचहत्तर वर्ष के होंगे, तब तक तो बेटों के बेटे गुरुकुल से लौट रहे होंगे। तब उनके रुकने की कोई जरूरत नहीं रही, क्योंकि उनके बेटे ही अब अनुभवी पिता हो गए हैं, वे पचास साल के हैं। अब वे ज्ञान को, अनुभव को दे सकेंगे। अब उनके संन्यास का क्षण आया, अब वे छोड़ दें और जंगल चले जाएं।
और एक बहुत अदभुत सर्किल हमने निर्मित किया था। ये जो पचहत्तर वर्ष के वृद्ध-जन जंगल चले जाएंगे, ये आने वाले बच्चों के लिए गुरु का काम करेंगे। यह एक सर्किल था हमारा।
और ध्यान रहे, हमने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि विद्यार्थी और गुरु के बीच इससे कम उम्र का फासला उचित है। पचास साल की उम्र का फासला जरूरी है। क्योंकि एक तो वृद्ध की सब वासनाएं क्षीण हो गई होती हैं। केवल वे वृद्ध ही जिनकी वासनाएं समस्त क्षीण हो गईं, जो अनुभव से वासनाओं के पार हो गए हैं, अपने बच्चों को ब्रह्मचर्य में दीक्षित कर सकते हैं, नहीं तो नहीं। कैसे करेंगे? अब यह गुरु खुद गीता में काम-शास्त्र छिपाकर पढ़ता हो, फिर ठीक है, फिर बच्चे भी पहचान जाते हैं । पहचानने
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