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________________ निर्वाण उपनिषद में देर नहीं लगती। फिर यही गुरु उनको ब्रह्मचर्य की बात करता हो। तो देख लेते, सुन लेते, लेकिन जान जाते कि ये सब बातें करने की हैं। आज तो यूनिवर्सिटी में ऐसा होता है कि अक्सर ऐसा हो जाता है—मैं कोई दस वर्ष तक यूनिवर्सिटी में था-अक्सर ऐसा हो जाता है कि एक ही लड़की के लिए प्रोफेसर भी दीवाना है और लड़के भी दीवाने हैं। भारी प्रतिस्पर्धा हो जाती है। अब, अब ब्रह्मचर्य की बात करने की भी तो जरूरत नहीं रह गई, शोभा भी नहीं देती। पचास साल का फासला हमने माना था कि विद्यार्थी और गुरु में होना चाहिए। इतना डिस्टेंस कई अर्थों में जरूरी है। ___ एक तो वार्धक्य का अपना सौंदर्य है, अपनी गरिमा है। अगर कोई व्यक्ति सच में ढंग से बूढ़ा हुआ हो, तो बुढ़ापे का जो सौंदर्य है, वह किसी भी स्थिति में कभी नहीं होता। क्योंकि जवानी में तो एक उत्तेजना होती है, इसलिए सौंदर्य में शांति नहीं होती, स्निग्धता नहीं होती, चांद जैसा नहीं होता सौंदर्य। और जवानी में तो एक उतावलापन होता है, जल्दी होती है। जल्दी कुरूप होती है। जल्दी में कभी भी सौंदर्य नहीं होता। सौंदर्य तो बहुत धीरे से बहने वाली नदी की दशा है। और जवानी इतनी ऊर्जा से भरी होती है कि उसे फेंकने के लिए पागल होती है, विक्षिप्त होती है। जवानी कभी भी स्वस्थ नहीं होती। हालांकि हम कहते हैं कि जवान बहुत स्वस्थ होते हैं शरीर से, लेकिन मन से जवानी बहुत अस्वस्थ अवस्था है। बूढ़े ही स्वस्थ हो पाते हैं। ___ रवींद्रनाथ ने कहा है कि अगर कोई ठीक से वृद्ध हो...और ठीक से वृद्ध होने का मतलब यही है कि भीतर जवानी सरकती न रह जाए, और तो कोई अर्थ ही नहीं होता। नहीं तो शरीर बूढ़ा हो जाता है और मन जवान रह जाता है। तब बूढ़े से ज्यादा कुरूप इस जमीन पर कोई घटना नहीं होती, द मोस्ट, द अग्लीएस्ट, जब बूढ़ा शरीर होता है और मन जवान की तरह बेताब, पागल और रुग्ण और वासनाग्रस्त होता है। . ___ यह बड़े मजे की बात है, बच्चे अब भी सुंदर होते हैं, जवान अब भी सुंदर होते हैं, बूढ़े अब सुंदर होना बंद हो गए। कभी मुश्किल से कभी कोई वृद्ध व्यक्ति सुंदर दिखाई पड़ता है। रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब सचमुच कोई बूढ़ा जीवन के अनुभव से पककर सुंदर वार्धक्य को उपलब्ध होता है, तो उसके सिर पर आ गए सफेद बाल ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे गौरीशंकर पर जम गई शुभ्र बर्फ-शांत शिखर को छूता हुआ, आसमान को छूता हुआ। जहां बादल भी शर्म से झुक जाते हैं और नीचे पड़ जाते हैं। ऐसे बूढ़ों को हम कहते थे गुरु। ___ इतना फासला न हो तो गुरु और शिष्य के बीच जो श्रद्धा का जन्म होना चाहिए, वह नहीं हो सकता। और फिर ये जो सब जान चके हैं. यही देने में समर्थ हो सकते हैं। आज करीब-करीब जिन्होंने कछ भी नहीं जाना—शब्द जाने हैं, परीक्षापत्र जाने हैं, सर्टिफिकेट जाने हैं—जिनका अनुभव से कोई संबंध नहीं, वे उनको ज्ञान देते रहते हैं, जो करीब-करीब उनकी ही मनोदशा में हैं। कोई भेद नहीं है। और अगर विद्यार्थी थोड़ा होशियार हो, तो शिक्षक से ज्यादा जान सकता है आज। पहले यह असंभव था। विद्यार्थी थोड़ा होशियार हो, तो शिक्षक से ज्यादा जान सकता है। और अक्सर कुछ विद्यार्थी तो थोड़े होशियार होंगे ही और शिक्षक से थोड़े ज्यादा ही होंगे। क्योंकि शिक्षक की तरफ जाने वाला जो वर्ग है समाज का, वह सबसे कम होशियार वर्ग होता है। 7294
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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