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________________ आपने किए। उन पापों की याद मन को घेरे रखती है, जो आपने नहीं किए। भारतीय मनीषी बहुत समझदार थे, बुद्धिमान थे, प्रज्ञावान थे । वे कहते थे, पच्चीस वर्ष ऊर्जा को इकट्ठा कर लो, समस्त शक्ति को जरा भी बहने मत दो। ताकि जब तुम कूदो जीवन के भोग के जगत में, तो तुम्हारी शक्ति से भरी हुए ऊर्जा के तीर तुम्हें वासनाओं के आखिरी तल तक पहुंचा दें। तुम वह सब देख लो, जो संसार दिखा सकता है, ताकि संसार से पीठ मोड़ते वक्त मन में एक बार भी पीछे लौटकर देखने का भाव न आए। यह ब्रह्मचर्य आश्रम का अर्थ था । इसका यह अर्थ नहीं था कि लोंगों को साधु बनाना है, इसलिए ब्रह्मचर्य । नहीं, लोगों को भोग की इतनी स्पष्ट प्रतीति हो जानी चाहिए कि भोग व्यर्थ हो जाए। तभी तो साधुता का जन्म होता है। ❤ निर्वाण उपनिषद इसलिए ब्रह्मचर्य के पच्चीस वर्ष के बाद हम भेज देते थे व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में । अजीब सी बात थी कि पच्चीस साल तक उसे रखते थे दूर वासनाओं के जगत से और पच्चीस साल के बाद बैंड-बाजे बजाकर उसे वासनाओं के जगत में प्रवेश कराते थे। बड़े गुणी लोग थे, जिन्होंने यह सोचा । उन्होंने सोचा कि शक्ति पहले तो संगृहीत होनी चाहिए! आज अगर पश्चिम में या पूरब में भी कोई भी व्यक्ति तृप्त नहीं है, कामवासना से भी तृप्त नहीं है— यद्यपि आज के युग में जितनी कामवासना को तृप्त करने के उपाय हैं और आज के युग में जितना कामवासना को तृप्त करने का प्रचार है और आज के युग में कामवासना को जितना प्रदर्शित किया है, उतना दुनिया में कभी भी नहीं था, फिर भी कोई आदमी तृप्त नहीं मालूम होता — उसका कारण है . शक्ति इसके पहले संगृहीत हो, विसर्जित होनी शुरू हो जाती है। इसके पहले कि फल पके, जड़ें रस मिट्टी में खोना शुरू कर देती हैं। फल कभी पक ही नहीं पाता। और जो फल कच्चा ही रह जाता है, वह वृक्ष से कैसे त्याग कर दे वृक्ष का । कच्चे फल कहीं वृक्ष का त्याग करते हैं? पके फल गिरते हैं, चुपचाप गिर जाते हैं। वृक्ष को भी पता नहीं चलता, कब ! लेकिन पकने के लिए ऊर्जा चाहिए। जीवन के अनुभव के पकने के लिए भी ऊर्जा चाहिए। तो पच्चीस वर्ष तक तो हम समस्त रूपों में शक्ति को संगृहीत और शक्ति को जन्माने और शक्ति को पैदा करने का उपाय करते थे । और एक-एक आदमी को हम एक रिजर्वायर बना देते थे कि वह ऊर्जा से आंदोलित, शक्ति-संपन्न, भरा हुआ जगत में आता था। ध्यान रहे, जितना शक्तिशाली पुरुष हो, उतनी जल्दी वासनाओं से मुक्त हो जाता है । जितना निर्बल . पुरुष हो, उतनी देर लग जाती है। क्योंकि निर्बल कभी भोग का अनुभव ही नहीं कर पाता, और जिसका अनुभव नहीं, उससे छुटकारा कैसे होगा ? जिसे जाना ही नहीं, वह व्यर्थ है, यह कैसे जाना जाएगा? व्यर्थता का ज्ञान तो पूरे जानने से ही उपलब्ध होता है। इसलिए दुनिया जब तक भारतीय मनीषा के द्वारा विभाजित मनुष्य के खंडों को पुनः स्वीकार नहीं. कर लेती, हम मनुष्य को वासनाओं से मुक्त करने में समर्थ न हो सकेंगे। ऋषि कहता है, पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य के आवास में जो जाना, गृहस्थ जीवन में जो अनुभव किया...। पचास वर्ष की उम्र तक व्यक्ति गृहस्थ रहेगा। पच्चीस वर्ष वह गृहस्थ जीवन का अनुभव करेगा। और जब वह पचास वर्ष का होने के करीब होगा, तब उसके बेटे आश्रम से लौटने के करीब हो 292
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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