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निर्वाण उपनिषद
किन्हीं क्षणों में उसके पार जाने की चेष्टा भी करता है। लेकिन भला आदमी अपने अहंकार को बुरा भी नहीं समझता। पश्चात्ताप का तो सवाल ही नहीं है। अहंकार उसका भला है।
कृष्णमूर्ति एक शब्द का प्रयोग करते हैं, वह ठीक शब्द है, पायस इगोइस्ट, पवित्र अहंकारी। दोनों उलटे मालूम पड़ते हैं—पवित्र अहंकारी। अहंकारी और पवित्र कैसे होगा? और जो पवित्र है वह अहंकारी कैसे होगा? लेकिन होता है। जिनको अच्छे होने की भ्रांति पैदा हो जाती है, वे पवित्र अहंकारी हैं। . __ लेकिन ध्यान रखें, अहंकार पवित्र होकर शुद्ध जहर हो जाता है—प्योर पायजन। बुरा आदमी तो थोड़ी सी पीड़ा भी पाता है, कांटे की तरह चुभता भी है कि मैं बुरा आदमी हूं। इसलिए बुरा आदमी अपने अहंकार को उसकी पूरी शुद्धता में खड़ा नहीं कर सकता। उसकी अकड़ में एक कमी रह ही जाती है, भीतर ही उसके कोई कहे चला जाता है कि तुम बुरे आदमी हो। तो बुराई के आधार पर अहंकार का पूरा विस्तार नहीं हो सकता। आधारशिला में ही कमी रह जाती है। लेकिन मैं भला आदमी हूं, तब तो अहंकार के फैलाव की पूरी सुविधा और गुंजाइश है। तब अहंकार छतरी की तरह छा जाता है। बड़े सुदृढ़ आधार पर खड़ा होता है।
भले आदमी का जो अहंकार है, संन्यासी के लिए वह भी नहीं है। लेकिन समाज इसका उपयोग करता है, क्योंकि समाज को पता है कि आदमी को अहंकार के पार ले जाना अति कठिन है। इसलिए समाज के पास एक ही उपाय है कि वह भलाई के लिए प्रेरित करने को आदमी के अहंकार का उपयोग करे। इसलिए हम आदमी से कहते हैं कि ऐसा मत करो, लोग क्या कहेंगे! काम बुरा है, यह नहीं कहते। बाप अपने बेटे को समझाता है कि झूठ मत बोलना; पकड़ जाओगे, तो बड़ी बदनामी होगी। झूठ मत बोलना, लोग क्या कहेंगे! झूठ मत बोलना, चोरी मत करना। हमारे कुल में कभी किसी ने चोरी नहीं की।
यह सब अहंकार को उकसाया जा रहा है। एक बीमारी को दबाने के लिए दूसरी बीमारी को उठाया जा रहा है। लेकिन समाज की अपनी कठिनाई है। समाज अब तक ऐसे सूत्र नहीं खोज पाया है कि आदमी में भलाई का जन्म हो सके बिना अहंकार के। इसलिए हम अहंकार का उपयोग करते हैं और अहंकार को भलाई के साथ जोड़ते हैं। इससे जो घटना घटती है, वह यह नहीं है कि अहंकार भलाई के साथ जडकर भला हो जाता हो। घटना यह घटती है कि अहंकार के साथ भलाई जड़कर बरी हो जाती है। जहर की एक खूबी है कि वह एक बूंद भी काफी है, सब जहरीला हो जाएगा।
जब हम अहंकार को जोड़ देते हैं भलाई से, क्योंकि हमें दिखता ही नहीं कि और कोई उपाय है...। अगर किसी आदमी से मंदिर बनवाना है, तो पत्थर पर उसका नाम खोदना ही पड़ेगा। कोई आदमी ऐसा मंदिर बनाने को राजी नहीं है, जिस पर उसका नाम ही न लगे। वह कहेगा, फिर प्रयोजन ही क्या रहा! मंदिर में किसी को रस नहीं है। वह जो मंदिर के भीतर की प्रतिमा है, उसमें किसी को रस नहीं है, वह जो मंदिर के बाहर पत्थर लगता है नाम का, उसमें रस है। ऐसा नहीं है कि मंदिर बनाए जाते हैं और फिर पत्थर लगाए जाते हों। पत्थर के लिए मंदिर बनाए जाते हैं। पत्थर पहले बन जाता है। लेकिन मंदिर बनवाना हो, तो वह पत्थर लगवाना पड़ता है, नहीं तो मंदिर बन नहीं सकता।
मंदिर भी अगर हम बनाएंगे, तो अहंकार के लिए ही बनाते हैं। लेकिन कठिनाई तो यह है कि जो मंदिर अहंकार के लिए बनता है, वह मंदिर नहीं रह जाता। इसलिए सारी दुनिया में मंदिर और मस्जिद
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