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________________ संन्यासी करता क्या है? गृहस्थ तो संसार बसाता है, निर्माण करता है स्वप्नों का, आरोपण करता है विचारों का, माया का, मोह का, ममता का । संन्यासी क्या करता है ? गृहस्थ को तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि संन्यासी कुछ भी नहीं करता, भगोड़ा है, एस्केपिस्ट है। क्योंकि जो-जो गृहस्थ करता है, वह तो संन्यासी नहीं करता है। संन्यासी भी कुछ करता है। इस सूत्र में ऋषि कहता है, त्रयगुणों से रहित स्वरूप के अनुसंधान में तथा भ्रांति के भंजन में समय व्यतीत करता है। गृहस्थ से ठीक उलटी यात्रा है संन्यासी की। गृहस्थ, तीन गुणों का जो फैलाव है, उसमें ही डूबा रहता है। कभी रज में, कभी तम में, कभी सत्व में। कभी अच्छे में, कभी बुरे में, कभी आलस्य में । संन्यासी उन तीनों के पार चौथे में चलने की चेष्टा में संलग्न होता है। यहां एक बात समझ लेनी जरूरी है। सत्व, शुभ जिसे हम कहें, संन्यासी उसके भी पार चलने में लगा रहता है। अशुभ जिसे हम कहते हैं, उसके पार तो वह जाता ही है, लेकिन जिसे हम शुभ कहते हैं, संन्यासी उसके भी पार जाने में लगा रहता है। यह थोड़ा समझना कठिन मालूम पड़ेगा । यह तो ठीक है कि अशुभ के हम पार जाएं, यह तो ठीक है कि बुराई का त्याग हो, लेकिन संन्यासी भलाई का भी त्याग करता है। क्योंकि ऋषि की दृष्टि यह है कि जब तक भला भी न छूट जाए, तब तक बुरा पूरी तरह नहीं छूटता, क्योंकि बुरा और भला एक ही चीज के दो पहलू हैं। ऋषि की यह दृष्टि है कि अगर भले आदमी को यह भी याद रह जाए कि मैं भला आदमी हूं, तो उसके भीतर बुराई दबी पड़ी रह जाती है। वस्तुतः भला आदमी वह है, जिसे यह भी पता नहीं रह जाता कि मैं भला आदमी हूं। भलाई छूट जाती है। भलाई छूट जाती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि वह भला करना बंद कर देता है। भलाई छूट जाती है, इसका अर्थ यह है कि भलाई वह अपनी तरफ से नहीं करता, उससे जो भी होता है, वह भला है। सत्व के भी पार चला जाना संन्यास है। यह बहुत मौलिक क्रांति की बात है । जगत में बहुत तरह के विचार पैदा हुए, लेकिन सत्व के पार ले जाने वाला विचार सिर्फ इस भूमि पर पैदा हुआ है । जगत में जो भी विचार पैदा हुए हैं, वे सब सत्व तक ले जाने की आकांक्षा रखते हैं कि आदमी अच्छा हो जाए। लेकिन भारतीय मनीषा की यह समझ है कि आदमी अच्छा हो जाए, यह अंत नहीं है। आदमी अच्छे के भी पार हो जाए, यही अंत है। क्योंकि इस बात की स्मृति भी कि मैं अच्छा हूं, अच्छा कर रहा हूं, अस्मिता है, अहंकार है, इगो है। और ध्यान रहे, जहर कितना ही शुद्ध हो जाए; इससे जहर नहीं रह जाता, ऐसा समझने की कोई भी जरूरत नहीं है। सच तो यह है – सच उलटा है— कि शुद्ध होकर जहर और जहरीला हो जाता है। बुरे आदमी का भी अहंकार होता है, अशुद्ध होता है। बुरा आदमी अपने अहंकार से परेशान भी होता है, बुरा आदमी अपने अहंकार को बुरा भी समझता है । किन्हीं क्षणों में पश्चात्ताप भी करता है।
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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