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________________ असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा-चैतन्य और साक्षीत्व से उसके कचरे बटोरने के श्रम का हिसाब रखें, तो कहना पड़ेगा कि आदमी एक चमत्कार है। फिर भीतर जाने को जगह नहीं मिलती। और हम परमात्मा को बुलाते हैं, बहुत कठिन हो जाता है। भीतर जाना हो, तो भीतर खाली होना जरूरी है। और खाली वही हो सकता है, जो संसार को अपने भीतर प्रवेश न करने दे। . संन्यासी का सूत्र आपसे कहता हूं। संन्यासी भी संसार में रहता है और गृहस्थ भी संसार में रहता है। लेकिन एक बात में फर्क है। संन्यासी संसार में रहता है, लेकिन संसार संन्यासी में नहीं रहता। गृहस्थ भी संसार में रहता है, लेकिन संसार भी गृहस्थ में रहता है। अपने भीतर भरता चला जाता है सब। संन्यासी घूमता है, इन्हीं रास्तों पर चलता है, इन्हीं रास्तों पर बुद्ध गुजरते हैं, लेकिन इन रास्तों की धूल उन्हें नहीं छूती। इन्हीं बाजारों से महावीर भी गुजरते हैं, लेकिन बाजारों की ध्वनियां उनके कानों में प्रवेश नहीं करतीं। झेन फकीर लिंची कहता था, जिस दिन तुम पानी में चलो और पानी तुम्हें न छू पाए, समझना कि तुम संन्यासी हो गए। इसीलिए कहता था कि संसार में चलो और संसार तुम्हें न छू पाए, तुम्हारे भीतर प्रवेश न कर पाए। ऋषि कहता है, चैतन्यमय होकर जो संसार का त्याग करते हैं। - जिनके भीतर बोध इतना जग जाता है कि उस बोध के कारण जो कचरा है वह कचरा दिखाई पड़ने • लगता है, फिर उसे सम्हालने की जरूरत नहीं रह जाती, हाथ से छूट जाता है और गिर जाता है। त्याग किया नहीं जाता, त्याग हो जाता है ज्ञान में। अज्ञानी त्याग करता है। ज्ञानी से त्याग होता है। इट जस्ट हैपेन्स विदाउट एनी एफर्ट। बिना किसी प्रयत्न के घटित होता है। बुद्ध घर छोड़कर जा रहे हैं। उनका सारथी उनसे कहता है, ऐसा सुंदर महल, ऐसी प्रीतिकर पत्नी, नवजात शिशु, ऐसा साम्राज्य, सब सुख-सुविधाएं छोड़कर कहां जाते हो तुम? लौट चलो। तो बुद्ध ने कहा है, लौटकर पीछे देखता हूं, मुझे कोई महल दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ आग की लपटें दिखाई पड़ती हैं। लौटकर पीछे देखता हूं, मुझे कोई सुंदर प्रीतिकर पत्नी दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ अपने ही मोह का फैलाव मालूम पड़ता है। मुझे कोई साम्राज्य दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ भविष्य में हो जाने वाले खंडहर दिखाई पड़ते हैं। ___ तो बुद्ध त्याग करके नहीं जा रहे हैं, क्योंकि जिसे लपटें दिखाई पड़ रही हों महल में, उसे त्याग नहीं करना पड़ता, त्याग हो जाता है। आपसे भी हो जाए, अगर लपटें दिखाई पड़ें। ___ आपके घर में आग लग जाए, फिर आप घर का त्याग करते हैं? फिर ऐसे भागते हैं कि घर कहीं पकड़.न ले। कहीं रोक ही न ले कि जरा ठहरो! इतने दिन साथ दिया, कहां जाते हो? द्वार-दरवाजे बंद न कर दे घर। वह तो घर को आपसे कोई लगाव नहीं है, नहीं तो आग लग जाए, तो निकलने न दे बाहर कि अब जाते कहां हो! साथी का पता तो दुख में ही पड़ता है। अब मौका आया तो भाग रहे हो। यही तो अवसर है, पलायन करते हो, एस्केपिस्ट हो? रुको! तो घर को आपसे कोई मोह नहीं है। वह बड़ा प्रसन्न होता है कि चलो, मौका मिला, यह सज्जन गए। लेकिन आग लगी हो, तो फिर आपको छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। अब जिसे संसार में ही व्यर्थता की, असारता की आग लगी दिखाई पड़े, उसे छोड़ना नहीं पड़ता, 2517
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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