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निर्वाण उपनिषद
है, जिससे आपकी चेतना बढ़ती है। ध्यान तेल है, जिससे भीतर की चेतना की ज्योति बड़ी और प्रखर होती है। ध्यान ईंधन है, जिससे भीतर की चेतना जगती है और आंदोलित होती है।
चेतना भीतर बढ़ती है, तो जगत असार मालूम पड़ता है। अगर वस्तुओं के कारण आदमी त्याग की सोचता है, तो जगत दुखपूर्ण मालूम पड़ता है, पीड़ादाई मालूम पड़ता है। जगत शत्रु मालूम पड़ता है। जगत को छोड़ देने से सुख मिलेगा, ऐसा मालूम पड़ता है। लेकिन चैतन्य भीतर जगता है, तो जगत असार है। न उसे पकड़ने से सुख का कोई संबंध है, न उसे छोड़ने से सुख का कोई संबंध है। '
हां, जगत चित्त से गिर जाए तो चित्त खाली हो जाता है— परमात्मा को झेलने और सम्हालने और देखने और पाने के लिए | भरा हुआ चित्त कैसे उसे जाने ! जगह भी चाहिए भीतर, स्पेस चाहिए ।
इतने बड़े मेहमान को बुलाते हैं, परमात्मा को, भीतर जगह नहीं, वहां कूड़ा-कबाड़ भरा हुआ है। वहां रत्तीभर जगह नहीं। परमात्मा कई दफे आपकी पुकार सुनकर चारों तरफ चक्कर लगाकर लौट जाता है । देखता है भीतर, भीतर कोई कबाड़ी की दुकान है! भीतर जगह ही नहीं है। आप खुद ही अपने भीतर घुसें, तो पता चलेगा। कितनी ही कोशिश करें, भीतर आप न पहुंच पाएंगे। इतना सब कचरा इकट्ठा किया हुआ है वहां कि वहां भीतर जगह भी तो चाहिए गति के लिए कोई ।
इसीलिए तो आदमी बाहर रहता है। अपने दरवाजे पर गुजार देता है जिंदगी। क्योंकि भीतर जाए कौन, झंझट में पड़े कौन ! और बाहर से सब कचरे को इकट्ठा करके भीतर डालता रहता है। खुद बाहर बैठा रहता है, कचरे को भीतर डालता रहता है। हिम्मत ही नहीं होती पीछे लौटकर देखने की भीतर ।
जो ध्यान में उतरना शुरू करते हैं, वे बहुत घबराते हैं। वे कहते हैं, हम अपने भीतर ऐसी चीजें देख रहे हैं, जो हमने सोची भी नहीं थीं कि हमारे भीतर हो सकती हैं। हैं ही, सोची नहीं थीं, भलीभांति जानते थे। आपने ही डालीं, क्योंकि वहां कुछ ऐसा नहीं हो सकता जो आपके बिना डाले हो। यह बात दूसरी है कि डा बहुत देर हो गई हो, जन्म-जन्म हो गए हों। डाली आपने ही हैं। अभी भी डाल रहे हैं। अभी भी डाल रहे हैं।
अगर कोई आदमी किसी की निंदा सुनाने लगे तो चेतना ऐसी सजग हो जाती है, जीवन में रस आ जाता है, कान फैल जाते हैं, सजग हो जाते हैं, फिर बैंड-बाजे भी बजते पड़ते। और वह आदमी फुसफुसाकर बोले, तो भी सुनाई पड़ता है।
दुनिया में, वह सुनाई नहीं
मुल्ला नसरुद्दीन तो कहता था कि अगर ज्यादा लोगों को सुनवाना हो बात, तो कान में फुसफुसाकर बोलो, तो ज्यादा लोग सुनेंगे ही। जब तुम फुसफुसाते हो, तो दूसरा आदमी समझता है, जरूर कोई उपद्रव की बात आ रही है, सुनने जैसी है।
हम चारों तरफ से कचरा इकट्ठा करते हैं, बटोरते हैं। अगर कोई हीरा देने आए, तो हम मानेंगे नहीं कि यह हीरा है। हम कहेंगे, ले जाओ, नासमझ समझा है हमें ? कोई ऐसा हीरा देने आता है ? कोई कचरा देने आए, तो हमारी बांहें फैली हैं, हम बिलकुल तैयार हैं।
हम सब एक-दूसरे के मन में कचरा डालते रहते हैं हजार-हजार उपाय से | पैसा भी खर्च करके आदमी अपने भीतर कचरे का इंतजाम करवाता है। कभी फिल्म देखता है, कभी कोई डिटेक्टिव नावेल पढ़ता है। न मालूम क्या-क्या आदमी करता है और किस-किस तरह कचरा बटोरता है ! अगर हम
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