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असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा-चैतन्य और साक्षीत्व से
त्याग नहीं, आत्मघात है। आत्मघात जैसा है। जब धन नहीं होता, तो आदमी आत्महत्या करने की सोचने लंगता है। प्रियजन बिछुड़ जाए, तो आत्महत्या की सोचने लगता है। प्रियजन प्रियजन सिद्ध न हो, तो आत्महत्या की सोचने लगता है। यश खो जाए, तो आत्महत्या की सोचने लगता है।
इसलिए एक बहुत मजे की बात है कि जिन मुल्कों में संन्यासी ज्यादा होते हैं, उन मुल्कों में आत्महत्या की संख्या कम होती है। और जिन मुल्कों में संन्यासी कम होते हैं, उन मुल्कों में आत्महत्या की संख्या ज्यादा होती है। और दोनों का मिलाकर अनुपात सदा बराबर होता है।
अमरीका तब तक अपनी आत्महत्याएं कम न कर पाएगा, जब तक कि वह संन्यास को न फैलाए। झूठा सही, झूठा संन्यास भी आत्महत्या से तो रोक लेता है, क्योंकि विकल्प बन जाता है, आल्टरनेट। संन्यास लेने से भी आत्महत्या घटित हो जाती है। दुख है, परेशानी है, एक आदमी ने संन्यास ले लिया; मरने से भी बचे, संसार से भी बचे, बचे भी रहे। ___लेकिन ऋषि कहता है, सम्यक संन्यास बाह्य कारणों से नहीं, आंतरिक आविर्भाव, चैतन्य से होता है।
एक तो है बाहर की वस्तुओं से मिले हुए दुख के कारण आदमी सोचने लगता है। और ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने कभी संन्यास के बाबत न सोचा हो। ऐसा आदमी ही खोजना कठिन है, जिसने कभी आत्महत्या के बाबत न सोचा हो। ___मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम जो-जो सोचते हैं, अगर करने लगें—जैसा कि कुछ लोग समझाते हैं कि जैसा विचार, वैसा आचरण-तो एक-एक आदमी को जिंदगी में कम से कम चार-चार दफे आत्महत्या करनी पड़े। यह हो तो नहीं सकता, क्योंकि एक ही दफे में खतम हो जाएगा। लेकिन अगर इसका कोई उपाय हो, तो एक-एक आदमी कम से कम, कम से कम, एवरेज, चार दफे आत्महत्या करे। जीवन तो रोज ऐसे मौके खड़े कर देता है, जब मन होता है कि खतम हो जाओ। वह तो और भी कमजोरियां हैं जो बचा लेती हैं। __मुल्ला नसरुद्दीन अपने कमरे में फांसी लगा रहे थे। पत्नी ने झांककर देखा और कहा कि नसरुद्दीन क्या कर रहे हो, यह क्या कर रहे हो? खड़े थे मेज पर। ऊपर रस्सी बंधी थी, कमर से रस्सी बंधी थी। पत्नी ने पूछा, यह क्या कर रहे हो? मुल्ला ने कहा, आत्महत्या कर रहे हैं। तो पत्नी ने कहा, लेकिन कमर में रस्सी? मुल्ला ने कहा, गले में बांधी तो बहुत सफोकेशन मालूम हुआ। पहले गले में बांधकर देखी थी, बहुत घबराहट होने लगी, इसलिए मैंने कमर में बांधी। - मरने के तो बहुत मौके आ जाते हैं, लेकिन सफोकेशन मालूम होता है। आदमी कमर में बांधकर निपटा देता है मौके। क्षणजीवी होते हैं भाव। फिर वापस खड़े हो जाते हैं अपनी दुनिया में। फिर सम्हल जाते हैं। फिर चलने लगते हैं।
दो बातें हैं। एक तो आब्जेक्टिव रिनंसिएशन होता है, और एक सब्जेक्टिव रिनंसिएशन। एक तो त्याग है जो वस्तुगत होता है, और एक त्याग है जो आत्मगत होता है। वस्तुगत त्याग वस्तु से हुई पीड़ा के कारण होता है। आत्मगत त्याग चैतन्य के बढ़ जाने के कारण होता है। इसलिए जो त्याग ध्यान के परिणामस्वरूप आता है, उसके अतिरिक्त और कोई त्याग त्याग नहीं है। क्योंकि ध्यान अकेली कीमिया
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