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________________ निर्वाण उपनिषद गांधी जी ने जो व्याख्या की, वह वही थी, जो गांधी जी कर सकते थे। उन्होंने व्याख्या की कि बुरी बात मत सुनो, तो यह बंदर जो कान पर हाथ लगाए बैठा है, यह बुरी बात मत सुनो। मुंह पर लगाए बैठा है, बुरी बात मत बोलो। आंख पर लगाए बैठा है, बुरी बात मत देखो। लेकिन इससे गलत कोई व्याख्या नहीं हो सकती। क्योंकि जो आदमी बुरी बात मत देखो, ऐसा सोचकर आंख पर हाथ रखेगा, उसे पहले तो बुरी बात देखनी पड़ेगी। नहीं तो पता नहीं चलेगा कि यह बुरी बात हो रही है, मत देखो। तो देख ही ली तब तक आपने। और बुरी बात की एक खराबी हैं कि आंख अगर थोड़ी देख ले और फिर आंख बंद की तो भीतर दिखाई पड़ती है। वह बंदर बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। बुरी बात मत सुनो, सुन लोगे तभी पता चलेगा कि बुरी है। फिर कान बंद कर लेना, तो वह बाहर भी न जा सकेगी अब। अब वह भीतर घूमेगी। नहीं, यह मतलब नहीं है। मतलब यह है, देखो ही मत, जब तक भीतर देखने की कोई जरूरत न आ जाए। सुनो ही मत, जब तक भीतर सुनना अनिवार्य न हो जाएं। बोलो ही मत, जब तक भीतर बोलना अनिवार्य न हो। यह बाहर से संबंधित नहीं है। लेकिन गांधी जी जैसे लोग सारी चीजें बाहर से ही समझते हैं। यह भीतर से संबंधित है। बुरी बात को अगर मुझे सुनने के लिए रुकना पड़े, यह तो बाहर वाले पर निर्भर है, वह कब बोल देगा। हो सकता है संगीत बजाना शुरू करे, फिर गाली दे दे। क्या करिएगा? और अक्सर गाली देना हो तो संगीत से शुरू करना सुविधापूर्ण होता है। बंद करते-करते तो बात पहुंच जाएगी। और यह तो बड़ी कमजोरी है कि बुरी बात सुनने से इतनी घबड़ाहट हो। अगर बुरी बात सुनने से आप बुरे हो जाते हैं, तो बिना सुने आप पक्के बुरे हैं। इस तरह बचाव न होगा। लेकिन यह मत सोचना कि यह बात बंदरों के लिए है। असल में वह जापान में परंपरागत बंदरों की मूर्ति बनाई जाती है, क्योंकि जापान में कहा जाता रहा है कि आदमी का मन बंदर है। और जो भी थोड़ा सा मन को समझते हैं, वे समझते हैं कि मन बंदर है। डार्विन तो बहुत बाद में समझा कि आदमी बंदर से ही पैदा हुआ है। लेकिन मन को समझने वाले सदा से ही जानते रहे हैं कि मन आदमी का बिलकुल बंदर है। आपने बंदर को उछलते-कूदते, बेचैन हालत में देखा है? आपका मन उससे ज्यादा बेचैन हालत में, उससे ज्यादा उछलता-कूदता है पूरे वक्त। अगर आपके मन का कोई इंतजाम हो सके और आपकी खोपड़ी में कुछ खिड़कियां बनाई जा सकें, और बाहर से लोग देखें तो बहुत हैरान हो जाएंगे कि यह भीतर आदमी क्या कर रहा है! हम तो देखते थे कि पद्मासन लगाए शांत बैठा है, भीतर तो यह बड़ी यात्राएं कर रहा है, बड़ी छलांगें मार रहा है-इस झाड़ से उस झाड़ पर। और यह भीतर चल रहा है। यह भीतर आदमी का मन बंदर है। उन मूर्तियों का अर्थ आपके लिए उपयोगी होगा इस सात दिन के लिए। वह मत देखो जिसे देखने की कोई अनिवार्यता नहीं है। और कैसा हम अजीब काम कर रहे हैं। रास्ते पर चले जा रहे हैं. तो दंतमंजन का विज्ञापन है वह भी पढ़ रहे हैं, सिगरेट का विज्ञापन है वह भी पढ़ रहे हैं, साबुन का विज्ञापन है वह भी पढ़ रहे हैं। जैसे पढ़ाई-लिखाई आपकी इसीलिए हुई थी। 1716
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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