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________________ शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा से छुट्टी लेनी है, तो भी वह दस दफे रिहर्सल कर लेता है मन में कि क्या कहूंगा। फिर वह क्या कहेगा, फिर मैं क्या जवाब दूंगा। वह सब सोचकर जाता है। अपने पर इतना भी भरोसा नहीं है कि वह क्या कहेगा तो उसका मैं जवाब दे सकूंगा । और जब वही जवाब न दे सकेंगे तो आप ही तो रिहर्सल कर रहे हैं। बड़े मजे की बात यह है । आप ही रिहर्सल कर रहे हैं। और खतरा यह है ... । सुना है मैंने कि एक नाटक का रिहर्सल चल रहा है। वह जो नाटक का आयोजन करने वाला है, वह बड़ा परेशान है। रिहर्सल में कभी एक मौजूद नहीं रहता अभिनेता, तो कभी अभिनेत्री नहीं आती, कभी संगीतज्ञ नहीं आता। कभी यह नहीं आता, कभी वह नहीं आता। वह रिहर्सल... सिर्फ एक व्यक्ति पर्दा उठाने वाला, नियमित आया, बाकी कोई भी नियमित नहीं आया । आखिरी ग्रैंड रिहर्सल । तो उसने कहा, आज मुझसे कहे बिना नहीं रहा जाता कि इस पर्दा उठाने वाले का मैं धन्यवाद करूं। क्योंकि आप सब में से कोई भी ऐसा नहीं है जो चूका न हो, सिर्फ यह एक आदमी है। तो उसने कहा, क्षमा करें धन्यवाद देने के पहले। मुझे आना मजबूरी थी, क्योंकि आज जब नाटक होगा तो मैं न आ पाऊंगा। इसलिए मैंने कहा, कम से कम जितना मैं कर सकता हूं, उतना तो करूं । आज मैं न आ पाऊंगा, जब नाटक आज होने वाला है। तो मैंने कहा कि आज तो मैं आ ही नहीं पाऊंगा, वह तो पक्का ही है, तो कम से कम रिहर्सल में तो मौजूद मैं रह ही जाऊं, ताकि कहने को बात न रहे। तो वह जो रिहर्सल आप कर रहे हैं न जिस आदमी पर भरोसा करके, ध्यान रखना कि ठीक नाटक के वक्त वह गड़बड़ हो जाएंगे। वहां वह न पाए जाएंगे। क्योंकि अगर वह वहां पाए जा सकते तो रिहर्सल . की कोई जरूरत न थी । और जब मुझे ही कुछ कहना है तो तैयारी का क्या सवाल है । जब मैं ही तैयारी करने वाला, मैं ही कहने वाला, तो ठीक है, मैं ही कह लूंगा। लेकिन तैयारी इसलिए कर रहा हूं कि भरोसा नहीं है। मन और वाणी में कोई संयोग नहीं है। पता नहीं कि सोचूं कुछ, कहूं कुछ, निकल जाए कुछ। कुछ भी पक्का पता नहीं है। इसलिए ठीक सब तैयार कर लेना है और वाणी पर व्यवस्था बिठा लेनी है। क्योंकि कहीं शुद्ध मन, सही मन, बीच में प्रकट हो जाए वाणी के, तो सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। ऋषि कहता है, वाणी छंट जाए, उतनी ही रह जाए जितनी मेरे मन के साथ ताल-मेल है। सच-सच, आथेंटिक, प्रामाणिक । और फिर प्रभु, मेरा मन भी मेरी वाणी में थिर हो जाए। मैं तभी मन का उपयोग करूं, जब वाणी की जरूरत हो। मैं तूलिका तभी उठाऊं, जब चित्र बनाना हो । और मैं वीणा का तार तभी छेडूं, जब गीत गाना हो। मैं मन का काम तभी करूं, जब कुछ प्रकट करना हो । मन अभिव्यक्ति का माध्यम है, जस्ट ए मीडियम आफ एक्सप्रेशन। तो जब आप बोल नहीं रहे, प्रकट नहीं कर रहे, तब मन की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन हमारी आदत ! बैठे हैं, सोए हैं, मन चल रहा है। पागल मन है हमारे भीतर। महात्मा गांधी को जापान से किसी ने तीन बंदर की मूर्तियां भेजी थीं। गांधी जी उनका अर्थ जिंदगीभर नहीं समझ पाए। या जो समझे वह गलत था । और जिन्होंने भेजी थीं, उनसे भी पुछवाया उन्होंने अर्थ, उनको भी पता नहीं था। आपने भी वह तीन बंदर की मूर्तियां देखीं चित्र में, मूर्तियां भी देखी होंगी। एक बंदर आंख पर हाथ लगाए बैठा है, एक कान पर हाथ लगाए बैठा है, एक मुंह पर हाथ लगाए बैठा है। 15
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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