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निर्वाण उपनिषद
तो रुक जाते हैं। क्या करते थे आप? बैठे-बैठे चलने की कोशिश कर रहे थे या टांगें आपकी पागल हो गई हैं? ठीक ऐसे ही हम बोलते रहते हैं। ठीक ऐसे ही, बाहर कोई जरूरत नहीं रहती है वाणी की तो वाणी भीतर चलती रहती है। बाहर नहीं बोलते तो भीतर बोलते हैं। दूसरे से नहीं बोलते, तो अपने से बोलते रहते हैं।
ऋषि कहता है, मेरा मन भी वाणी में स्थिर हो जाए।
यह पहली बात से ज्यादा कठिन बात है। इसका अर्थ है, जब मैं बोलूं तभी मन हो, जब मैं न बोलूं तो मन भी न हो जाए, मन भी न हो। जैसे, जब बैलूं तो पैर न चलें, जब सोऊं तब शरीर खड़ा न हो, ऐसे ही जब चुप हो जाऊं तो मन भी शांत और शून्य हो जाए। ___ पहले से शुरू करना पड़ेगा। जिसने पहला नहीं किया, वह दूसरा न कर पाएगा। पहले तो वाणी को मन में ठहराना पड़े। उतना ही रह जाने दें वाणी को जितना मन के, स्वभाव के अनुकूल है, बाकी हट जाने दें। बाकी सब झूठ गिर जाने दें।
बहुत कम बचेगी वाणी। अगर आप मन में वाणी को थिर करें तो नब्बे प्रतिशत वाणी विलीन हो जाएगी, विदा हो जाएगी। नब्बे प्रतिशत तो व्यर्थ है। और उस व्यर्थ से कितना उपद्रव पैदा होता है और जीवन कैसा उलझता चला जाता है, उसका हिसाब लगाना कठिन है। दस प्रतिशत बचेगी, टेलीग्रैफिक बच जाएगी।
आदमी चिट्ठी लिखता है तो लंबी लिखता चला जाता है। वही आदमी टेलीग्राम करने जाता है तो दस शब्दों में लिख देता है, अब आठ में ही लिखने लगा वह। और आठ में उतना कह देता है जितना पूरे पत्र में नहीं कह पाता। इसलिए टेलीग्राम का प्रभाव होता है, वह पत्र का नहीं होता। असल में लंबा पत्र वही लिखता है जिसे पत्र लिखना नहीं आता। असल में लंबी बात वही कहता है जिसे कहना नहीं आता। ...
लिंकन से कोई पछ रहा था कि जब आप घंटाभर व्याख्यान देते हैं तो आपको कितना सोचना पड़ता है? तो लिंकन ने कहा, बिलकुल नहीं। जब घंटाभर ही बोलना है तो सोचने की जरूरत क्या! उसने पूछा, जब आपको दस मिनट बोलना पड़ता है? तो लिंकन ने कहा, काफी मेहनत उठानी पड़ती है, सोचना पड़ता है। और जब दो ही मिनट बोलना होता है, तब तो मैं रातभर सो नहीं पाता। क्योंकि उस कचरे को हटाना पड़ता है, हीरे को छांटना पड़ता है।
जब वाणी मन में ठहरती है तो टेलीग्रैफिक हो जाती है, तो वह संक्षिप्त हो जाती है। ये उपनिषद ऐसे ही लोगों ने लिखे हैं। इसलिए बड़े छोटे में हो जाते हैं। संक्षिप्त हो जाता है सब। सारभूत रह जाता है-निचोड़। जो भी अनावश्यक है, वह हट जाता है। यह पहले करना जरूरी है, अगर दूसरी बात करनी हो। पहले वाणी काटनी पड़ेगी व्यर्थ। जब सार्थक वाणी रह जाएगी तो व्यर्थ मन के रहने की कोई जरूरत नहीं। जब जरूरत होगी, तब आप बोल देंगे।
फिर आप सोचते क्यों हैं? इतना सोचते क्यों हैं? सोचते इसीलिए हैं कि आपको भरोसा नहीं है कि आपकी वाणी और आपके मन के बीच में कोई मेल है। इसलिए पहले से तैयारी करते हैं कि क्या बोलूं, क्या न बोलूं। सब सोचते हैं। __ छोटी-छोटी बात आदमी सोचकर जाता है। अगर वह दफ्तर में जा रहा है और उसे अपने अधिकारी
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