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________________ शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा बहुत कठिन बात है। अपने को छिपाना हमारी जीवनभर कोशिश है, प्रकट करना नहीं। और जब हम बोलते हैं तो जरूरी नहीं कि कुछ बताने को बोलते हों। बहुत बार तो हम कुछ छिपाने को बोलते हैं, क्योंकि चुप रहने में कई बातें प्रकट हो जाती हैं। अगर आप किसी के पास बैठे हैं और आपको उस पर क्रोध आ रहा है, अगर आप चुप बैठे रहें तो प्रकट हो जाएगा। अगर आप पूछने लगें, मौसम कैसा है ? वह आदमी आपकी बातचीत में लग जाएगा और आप भीतर सरक जाएंगे। अगर आप चपचाप बैठे हैं, तो आपकी असली शकल ज्यादा देर छिपी नहीं रह सकती। ___ अगर आप बातचीत कर रहे हैं, तो आप धोखा दे सकते हैं। बातचीत एक बड़ा पर्दा बन जाती है। और जब हम बातचीत में कुशल हो जाते हैं, जब हम दूसरे को धोखा देने में कुशल हो जाते हैं, तो अंततः हम अपने को धोखा देने में सफल हो जाते हैं। ऋषि कहता है, मेरी वाणी मेरे मन में ठहर जाए। - मैं जो हूं, वही मेरी वाणी में हो, अन्यथा नहीं। कठिन होगी साधना। इसीलिए तो प्रार्थना करता है; क्योंकि वह भी जानता है, यह साधना कठिन है। परमात्मा साथ दे तो शायद हो जाए। अस्तित्व साथ दे तो शायद हो जाए। समस्त शक्तियां अगर साथ दें तो शायद हो जाए। अन्यथा कठिन है। फिर दूसरी बात कहता है कि...मेरी वाणी मेरे मन में ठहर जाए; दूसरी बात कहता है, मेरा मन मेरी , वाणी में ठहर जाए। ___यह और भी कठिन है। मन का वाणी में ठहरने का अर्थ यह है कि जब मैं बोलूं, तभी मेरे भीतर मन हो! और जब मैं न बोलूं तो मन भी न रह जाए। ठीक भी यही है। जब आप चलते हैं तभी आपके पास पैर होते हैं। आप कहेंगे, नहीं, जब नहीं चलते हैं तब भी पैर होते हैं। लेकिन उनको पैर कहना सिर्फ कामचलाऊ है। पैर तो वही है जो चलता है। आंख तो वही है जो देखती है। कान तो वही है जो सुनता है। तो जब हम कहते हैं अंधी आंख, तो हम बड़ा गलत शब्द कहते हैं, क्योंकि अंधी आंख का कोई मतलब ही नहीं होता। अंधे का मतलब होता है. आंख नहीं। आंख का मतलब होता है आंख. अंधे का मतलब होता है आंख नहीं। लेकिन जब आप आंख बंद किए होते हैं तब भी आप आंख का उपयोग अगर न कर रहे हों तो आप बिलकुल अंधे होते हैं। आंख का जब उपयोग होता है तभी आंख आंख है। फंक्शनल हैं, सब नाम फंक्शनल हैं, उनकी क्रियाओं से जुड़े हुए हैं। एक पंखा रखा हआ है, तब भी हम उसे पंखा कहते हैं। कहना नहीं चाहिए। पंखा हमें उसे तभी कहना चाहिए जब वह हवा करता हो। नहीं तो पंखा नहीं कहना चाहिए। तब वह सिर्फ बीज रूप से पंखा है। उसका मतलब यह है पंखा कहने का कि हम चाहें तो उससे हवा कर सकते हैं। बस इतना ही। लेकिन अगर आप एक पुढे की दस्ती उठाकर हवा करने लगें तो दस्ती पंखा हो जाती है। अगर आप एक किताब से हवा करने लगें तो किताब पंखा हो जाती है। और अगर मैं किताब फेंककर आपके सिर में मार दूं तो किताब पत्थर हो जाती है। सब चीजों का नाम फंक्शनल है। लेकिन अगर हम इस तरह नाम चलाएं तो बहुत मुश्किल हो जाए। इसलिए हम फिक्स्ड, स्थिर नाम रख लेते हैं। जब वाणी के लिए जरूरत हो बोलने की, तभी मन को होना चाहिए, बाकी समय नहीं होना चाहिए। पर हम तो ऐसे हैं कि कुर्सी पर बैठे रहते हैं तो टांगें हिलाते रहते हैं। कोई पूछे कि क्या कर रहे हैं आप, 13 7
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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