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निर्वाण उपनिषद
अपने को धोखा दे रहा है। ___ मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा था। बहुत सर्द थी रात, बर्फ पड़ती थी। कपड़े कम थे, वह गिर पड़ा सर्दी के कारण। उठ न सका, बर्फ में ठंडा होने लगा। तो उसने सोचा कि लगता है, मैं मर जाऊंगा। एक बार उसने अपनी पत्नी से पूछा था कि मरते वक्त क्या होता है ? तो उसने कहा था कि सब हाथ-पैर ठंडे हो जाते हैं, और क्या होता है। देखा हाथ-पैर ठंडे हो रहे हैं, तो उसने सोचा कि मैं मर रहा हूं। चार लोग पीछे से आए, तब तक वह सोच चुका था कि मैं मर चुका हूं, क्योंकि हाथ-पैर उसने देखे बिलकुल ठंडे हो चुके थे। ____उन चार आदमियों ने उसे कंधे पर उठाया, सोचा कि पास के किसी मरघट में पहुंचा दें। लेकिन अजनबी थे, और उन्हें गांव का रास्ता पता न था, तो चौराहे पर आकर खड़े हो गए। रात गहरी होने लगी, बर्फ ज्यादा पड़ने लगी। सोचने लगे कि चौराहे पर से किस तरफ चलें, जहां गांव हो तो इसको कहीं गांव में पहुंचा दें। दफना दिया जाए।
जब बड़ी देर हो गई। मुल्ला मन में सोचता रहा। उसे रास्ता मालूम था। पर उसने सोचा कि मरे हुए आदमियों का बोलना पता नहीं नियम युक्त है या नहीं, क्योंकि पत्नी से पूछा नहीं कि मरा हुआ आदमी बोलता है कि नहीं बोलता है। जब बहुत देर हो गई, उसने सोचा, अब नियम युक्त हो या न हो, कहीं ऐसा न हो कि ये भी ठंडे होकर मर जाएं। तो उसने कहा, भाइयो, इफ यू डोंट माइंड, अगर आप नाराज न हों और एक मरे हुए आदमी की बात सुनने में कोई नियम का उल्लंघन न समझें, तो मैं आपको रास्ता बता सकता हूं कि जब मैं जिंदा था तो यह बाएं तरफ का रास्ता मेरे गांव को जाता था।
उन आदमियों ने कहा, तू कैसा आदमी है! तू पूरी तरह जिंदा है, बोल रहा है, तो भी आंख बंद . करके हाथ-पैर अकडाकर क्यों पडा था? उसने कहा, यह तो मझे भी मालम हो रहा था कि व्याख्या तो यही की थी मेरी पत्नी ने कि हाथ-पैर ठंडे हो जाते हैं, जब आदमी मर जाता है। हाथ-पैर जरूर ठंडे हो गए, लेकिन मुझे पता भी चल रहा है, तो किसी न किसी तरह मुझे होना चाहिए। तो उन्होंने कहा कि जब तुझे यह पता चल रहा था तो तूने अपने से क्यों न कहा कि मैं जिंदा हूं और उठकर खड़ा हो जाता। ____ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, उसका कारण है। आई एम सच ए लायर, मैं ऐसा झूठ बोलने वाला हूं कि मैं खुद ही विश्वास नहीं कर सकता अपनी बात पर। अगर मैं अपने से कहूं कि मैं जिंदा हूं तो मुझे दो गवाह चाहिए। आई एम सच ए लायर, ऐसा झूठ बोलने वाला आदमी हूं मैं कि मुझे कभी पक्का नहीं आता कि जो मैं बोल रहा हूं वह सच है या झूठ।
जो हम चारों तरफ बोलते रहते हैं, वह धीरे-धीरे हमारा व्यक्तित्व बन जाता है। आपको भी बिना गवाह के पक्का नहीं हो सकता कि आप जो बोल रहे हैं वह सही है या झूठ।
ऋषि कहता है, मेरी वाणी मेरे मन में स्थिर हो जाए, मेरी वाणी मेरे मन के अनुकूल हो जाए, मेरे मन से अन्यथा मेरी वाणी में कछ न बचे। जो मेरे मन में हो. वही मेरी वाणी में हो। मेरी वाणी मेरी अभिव्यक्ति बन जाए। मैं जैसा हूं, भला और बुरा। मैं जो भी हूं, वही मेरी वाणी से प्रकट हो। मेरी तस्वीर मेरी ही तस्वीर हो, किसी और की नहीं। मेरा चेहरा मेरा ही चेहरा हो, किसी और का नहीं। मैं आथेंटिक, प्रामाणिक हो जाऊं। मेरे शब्द मेरे मन के प्रतीक बन जाएं।
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