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________________ असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा — चैतन्य और साक्षीत्व से - डीप स्लीप पर सिर्फ दस साल में काम शुरू हुआ है । वह जिसे सुषुप्ति कहते हैं उपनिषद के ऋषि, केवल पिछले दस वर्षों में – केवल पिछले दस वर्षों में, ऋषि के वचन तो हजारों वर्ष पुराने हैं - केवल दस वर्षों में स्लीप लैब अमरीका में बने हैं, प्रयोगशालाएं बनी हैं, जहां आदमियों की स्वप्नरहित निद्रा पर प्रयोग चल रहे हैं। कोई दस हजार लोगों पर अभी इन दस वर्षों में प्रयोग किए गए हैं। प्रयोगशालाएं हैं, जिनमें लोग रातभर सोते हैं। और हजारों तरह के यंत्रों से जांच की जाती है कि उनका स्वप्न क्या है ? और जब स्वप्न समाप्त हो जाता है, तो निद्रा की स्थिति में उनकी मन की तरंगें, वेव्स कैसी होती हैं? उनके चित्त की, चेतना की दशा कैसी होती है ? भीतर वे किन गहराइयों में उतर जाते हैं? निद्रा क्या है ? क्योंकि जब स्वप्न से इतना पता चल सका कि हम मनुष्य को जानने में ज्यादा सफल हुए, तो शायद निद्रा से और गहरे सत्यों का पता चले। तो तीसरी अवस्था पर पश्चिम का मनोविज्ञान गहन प्रयोगों में लगा है। पश्चिम में सिर्फ पिछले दस वर्षों में निद्रा के ऊपर पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, इसके पहले नहीं। आदमी सोता सदा से रहा है। और एक आदमी आठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। इतने बड़े हिस्से को अज्ञात छोड़ देना महंगा है। जहां हम अपने जीवन के बीस वर्ष गुजारते हैं, उस अवस्था का हमें कुछ भी पता न हो, तो हम अपने आत्मज्ञान • में गति नहीं कर सकते हैं। लेकिन अभी प्राथमिक चरण है। निद्रा की खोज पश्चिम में पहले कदम पर है। लेकिन ऋषि तुरीय की बात करते हैं। वे कहते हैं, निद्रा भी ठीक, पर उसके भी पार एक है, जो इन तीनों से गुजरता है। ये तीनों तो सिर्फ उसकी स्थितियां हैं। ये स्टेशन्स हैं कहें। एक आदमी गुजरता है, एक स्टेशन से दूसरे, दूसरे से तीसरे । और वह आदमी समझ ले कि मैं यही स्टेशन हूं, फिर समझ ले दूसरे स्टेशन पर कि मैं यही स्टेशन हूं, फिर तीसरे पर कि मैं यही स्टेशन हूं, तो भ्रांति होगी। उपनिषद के ऋषि कहते हैं, जो स्टेशनों को पार कर रहा है, वह यात्री स्टेशनों से अलग है। जागते हैं, वह एक स्थिति है। स्वप्न देखते हैं, वह दूसरी स्थिति है। सो जाते हैं, वह तीसरी स्थिति है। लेकिन जिसकी ये स्थितियां हैं, वह इन तीनों पार चौथा, तुरीय, द फोर्थ, वह चौथा है, वह यात्री है। ये तो केवल पड़ाव हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान को शायद अभी और सैकड़ों वर्ष लगेंगे, जब वह तुरीय की खबर ला पाए। लेकिन अब तो इतना तो उन्हें भी खयाल होने लगा और कार्ल गुस्ताव जुंग ने स्वीकार किया है कि जब भारतीय मनीषा के इस सत्य को हम पहले कभी स्वीकार नहीं कर पाए थे कि स्वप्न का भी कोई मूल्य हो सकता है, फिर हमें वह स्वीकार कर लेना पड़ा। फिर हमें कभी खयाल भी नहीं था कि निद्रा का भी कोई मूल्य हो सकता है, वह भी हमें स्वीकार कर लेना पड़ा। ज्यादा देर नहीं लगेगी, कि जिनके तीन चरण हमें स्वीकार कर लेने पड़े, उनके चौथे चरण को भी हमें स्वीकार करना पड़े। क्योंकि जो तीन तक सही निकले हैं, कोई कारण नहीं मालूम होता कि वे चौथे पर क्यों सही न हों। और जब इतने तक वे सही निकले हैं, तो चौथे पर सही होने की संभावना गहन हो जाती है और गलत कहने की हिम्मत क्षीण हो जाती है। यह ऋषि कह रहा है कि वह जो ब्रह्म है, तुरीय, वह जो चौथी अवस्था है, वही संन्यासी का यज्ञोपवीत है। वह उस चौथी अवस्था को ही अपने गले में डालकर जीता है। वही उसकी शिखा है। इससे 243
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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