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________________ निर्वाण उपनिषद पहले कर लो। विपरीत मन छाए हुए हैं चेतना को । पत्तों ही पत्तों से भरी हुई चेतना ढंक गई है भीतर। इससे कैसे मुक्त हों ? क्या मन का कोई एक भाव चुन लें और विपरीत भाव का खंडन करते रहें, मुक्त हो जाएंगे ? तो नहीं हो पाएंगे। जो भी मन में चुनेगा, वह बंध जाएगा, क्योंकि विपरीत मिटाया नहीं जा सकता। वह उसका ही हिस्सा है। जैसे एक सिक्का होता है, उसके दो पहलू होते हैं। अगर आप सोचें कि इसका एक पहलू फेंक दें और दूसरा बचा लें, तो आप झंझट में पड़ेंगे। क्योंकि जो आप बचाएंगे, उसके साथ, जिसे आपको फेंकना था वह बच जाएगा। अगर आप फेंकेंगे, तो जिसे आपको बचाना था, वह फेंकने वाले के साथ फिंक जाएगा। आप झंझट में पड़ जाएंगे। सिक्के के दोनों पहलू संयुक्त हैं। ऐसे ही मन का भाव और अभाव संयुक्त है, विधायक और नकारात्मक स्थिति संयुक्त है, घृणा और प्रेम जुड़े हैं, क्रोध और क्षमा जुड़े हैं, राग और विराग जुड़े हैं। अगर किसी ने कहा है कि मैं राग को काटकर और विरागी होता हूं, तो वह विराग को ऊपर फैला लेगा, राग कहीं पीछे छिपकर बैठा रहेगा। इसलिए हमने एक तीसरा शब्द गढ़ा, और वह शब्द है वीतराग । उस वीतराग का अर्थ होता है, राग और विराग दोनों के पार । वीतराग का अर्थ विराग नहीं होता, क्योंकि विराग तो द्वंद्व का हिस्सा है। वीतराग का अर्थ होता है, दोनों के पार । यह ऋषि कहता है, जिसे इन दोनों के पार होना है, उसे आकाश भाव धारण करना पड़ता है। यह आकाश-भाव क्या है? एक काला बादल आकाश में घूम रहा है, एक सफेद बदली का टुकड़ा घूम रहा है। दोनों आकाश में घूम रहे हैं, लेकिन आकाश दोनों में से किसी से भी आइडेंटिफाइड नहीं है। । आकाश यह नहीं कहता कि मैं सफेद बादल हूं। आकाश यह नहीं कहता कि मैं काला बादल हूं। सूरज निकला, किरणें भर गईं आकाश में, आलोकित हो गया सब । रात आई, अंधेरा छा गया। सब ओर अंधकार भर गया। आकाश दोनों को देखता रहता है एक साथ। दोनों को जानता रहता है एक साथ । दोनों का साक्षी बना रहता है। आकाश न तो कहता कि मैं प्रकाश हूं और न कहता कि मैं अंधकार हूं। प्रकाश और अंधेरा आता-जाता है, आकाश अपनी जगह बना रहता है। न तो प्रकाश उसे मिटा पाता है, न अंधेरा उसे मिटा पाता है। 1 आकाश-भाव का अर्थ है, दोनों के पार, दोनों को आवृत्त करके, दोनों से भिन्न, दोनों का साक्षी बन जाना। न तो भाव से बंधें, न अभाव से बंधे; न तो राग से बंधे, न विराग से बंधे; न तो भोग से बंधें, न त्याग से बंधें – दोनों के प्रति आकाश -भाव धारण कर लें । जस्ट बी ए स्पेस | आने दें राग को भी, जाने दें। आने दें विराग को भी, जाने दें। आप दोनों को घेरकर खड़े रहें - शून्य, साक्षी मात्र | ऐसे साक्षी दशा का नाम ही समाधि है । आज इतना ही अब हम आकाश भाव धारण करें। दो ही दिन बचे हैं ध्यान के। कल आखिरी दिन होगा। कोई मित्र पीछे न रह जाएं। कोई नब्बे प्रतिशत 236
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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