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सम्यक त्याग, निर्मल शक्ति और परम अनुशासन मुक्ति में प्रवेश
गृहस्थ भारी बोझ और सामान लिए हुए चल रहा है। बोझ इतना है कि चलना हो नहीं पाता और बोझ बढ़ाता चला जाता है। रोज बोझ बढ़ता चला जाता है। पुराना तो रहता ही है, नए को इकट्ठा करता चला जाता है। आखिर में उसी बोझ के नीचे दबकर मरता है। नियम जरूरी हैं गृहस्थ की दुनिया में, क्योंकि इतने रोग हैं वहां कि अगर चारों तरफ सिपाही बंदूकें लिए न खड़े हों, तो बड़ी कठिनाई हो जाए। संन्यासी के लिए नियम का कोई सवाल न रहा, क्योंकि जिस चीज के लिए हम नियम करते थे, उसको छोड़ने को ही ऋषि संन्यास कह रहा है। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए।
जिसे छोड़ने के लिए ऋषि संन्यास कह रहा है, उसी के लिए तो हम नियम बनाते थे। नियम सिर्फ पुअर सब्स्टीट्यूट थे, बहुत कमजोर। रास्ते पर एक सिपाही खड़ा है, क्योंकि पक्का पता है कि सिपाही हटा कि बाएं चलने का नियम समाप्त हो जाता है।
मेरे एक मित्र हैं, पद्मश्री हैं, वर्षों से एम.पी. हैं, बड़े कवि हैं, सब गुण हैं। मगर भारतीय होने का गुण भी है। लंदन पहली दफा गए थे। तो कहीं मित्र के घर से भोजन करके लौट रहे हैं रात कोई एक बजे। टैक्सी में लौट रहे हैं। रास्ता सुनसान है, कोई नहीं। न पुलिस वाला है, न कोई ट्रैफिक है, न कुछ। लेकिन ड्राइवर टैक्सी का, लाल बत्ती देखकर, कार को रोककर खड़ा है, तो उन्होंने उससे कहा कि जब कोई पुलिस वाला ही नहीं है और रास्ते पर कोई गाड़ी भी नहीं है, तो निकल चलो। यह भारतीय का गुण है और पद्मश्री हो तो यह गुण थोड़ा और ज्यादा ही होना चाहिए। तो उस ड्राइवर ने बहुत चकित होकर उन्हें देखा और उसने कहा, खिड़की के बाहर जरा कांच खोलकर देखें। एक बूढ़ी औरत साइकिल रोककर सर्दी में खड़ी कंप रही है, क्योंकि लाल लाइट है। उसने कहा कि आप तो कार के भीतर बैठे हैं। एक मिनट में क्या बिगड़ा जा रहा है! और पुलिस वाला खड़ा हो, तब तो एक बार निकला भी जा सकता है धोखा देकर। लेकिन जब कोई भी नहीं खड़ा है और हम पर ही सारी बात छोड़ दी गई है, तो यह धोखा किसी दूसरे को नहीं, अपने को है।
संन्यासी को मुक्त कहा है ऋषियों ने। उस पर कोई नियम हम नहीं रखते, क्योंकि हम मानते हैं कि वह अपने को धोखा नहीं देगा। बस, इतना ही इतना सूत्र है उसका, अपने को वह धोखा नहीं देगा। और जिसे यह पता चल गया कि अपने को धोखा नहीं दिया जा सकता, देन ए न्यू डिसिप्लिन इस बॉर्न, ए इनर डिसिप्लिन। तब एक नया अनुशासन पैदा होता है, जो आंतरिक है, जिसे ऊपर से आयोजित नहीं करना पड़ता। संन्यासी ऐसा नहीं कहता कि मैं सत्य बोलूंगा। जब भी घटना घटती है, वह सत्य बोलता है। संन्यासी ऐसा नहीं कहता कि मैं चोरी नहीं करूंगा। जब भी ऐसा अवसर आए, तो वह चोरी नहीं करता है। ये एक भीतरी अनुशासन हैं और बाहरी कोई अनुशासन नहीं है। __ अनियामकपम, टु बी अनडिसिप्लिण्ड। इट इज़ बेटर टु यूज अनडिसिप्लिण्ड दैन इनडिसिप्लिण्ड, अनुशासनमुक्त, अनुशासनहीन नहीं। क्योंकि हीन कहना ठीक नहीं। उसके भीतर एक नया अनुशासन जन्म गया, इसलिए बाहर के अनुशासन हटा लिए गए।
लेकिन कोई अगर सोचता हो-और ऐसा मन में होता है, और कई को हुआ, और उससे बहुत उपद्रव इस मुल्क में पैदा हुए-कोई अगर सोचता हो कि यह तो बहुत बढ़िया बात हुई। संन्यासी हो जाएं और अनियामकपन में प्रवेश कर जाएं। अनियामकपन बड़े नियमन से आता है। अनियामकपन की
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