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निर्वाण उपनिषद
संन्यासी का कोई मोह नहीं। इसलिए मैं कहता हूं, संन्यासी के लिए मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारा एक है। कभी मस्जिद करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कभी गुरुद्वारा करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कभी मंदिर करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कुछ भी करीब न हो, तो कहीं भी बैठ जाएं। वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है, वहीं गुरुद्वारा है। पर बड़े मोह होते हैं मन में।
संन्यासी का एक ही रस है, एक ही स्वाद है, परम सत्ता की तरफ। और यह स्वाद तभी पैदा हो सकता है, जब ये चार ऊपर के स्वाद गिर गए हों, नहीं तो यह पैदा नहीं हो सकता। अगर ये चार स्वाद बने रहें, ये क्रोध के, मोह के, शोक के, ये स्वाद बने रहें, तो यह परम सत्ता की तरफ बहने वाला रस, यह रसधार पैदा नहीं होती।
इसके बाद का सूत्र है, अनियामकपन ही उनकी निर्मल शक्ति है।
यह सूत्र बड़ा क्रांति का है। इसी सूत्र की मैं बात कर रहा था। अनियामकत्व, इनडिसिप्लिन, अनुशासन-मुक्ति ही उनकी निर्मल शक्ति है। वे नियमन नहीं करते, वे अपने को डिसिप्लिन नहीं करते, वे अपने को अनुशासन में बांधते नहीं, वे व्रत नहीं लेते, नियम नहीं लेते। वे कोई मर्यादा नहीं बांधते। वे ऐसा नहीं कहते कि मैं ऐसा करूंगा। ऐसी कसम नहीं खाते। अनियम में जीते हैं, इनडिसिप्लिन में।
बड़ी अजीब बात है! क्योंकि हम तो सोचते हैं, संन्यासी को एक डिसिप्लिन में जीना चाहिए। लेफ्ट-राइट वाले डिसिप्लिन में होना चाहिए। हमारे संन्यासी हैं तथाकथित, बिलकुल लेफ्ट-राइट हैं वे। लेकिन यह ऋषि कहता है कि अनियामकपन!
कैसे अदभुत और प्यारे लोग रहे होंगे! और कैसा साहस और कैसी गहरी समझ रही होगी! वे कहते हैं, संन्यासी का कोई नियम नहीं है। संन्यास का कोई नियम नहीं है। असल में सब नियमों के बाहर हो। जाना संन्यास है। घबराहट होगी मन को। अगर सब नियम टूट गए, तब तो सब अस्त-व्यस्त, अराजक हो जाएगा। तब तो जिंदगी की सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी।
नहीं होगी। क्योंकि इस अवस्था तक आने के लिए ऋषि कहता है, मोह, लोभ, काम, क्रोध ये सब विसर्जित हो जाएं, परमात्मा ही रस रह जाए, फिर अनियामकपन। जिसका काम न रहा, क्रोध न रहा, जिसका मोह न रहा, लोभ न रहा, भय न रहा, अब उस पर नियम की और क्या जरूरत रही? और अगर अब भी नियम की जरूरत है, तो स्वतंत्रता कब मिलेगी फिर? और जिसका परमात्मा ही रस रह गया, अब उसके लिए नियम की क्या जरूरत रही!
नहीं, संन्यासी रेल की तरह पटरियों पर नहीं दौड़ सकता। वह सरिताओं की तरह स्वतंत्र है। सागर ही उसकी खोज है। वह सरिताओं की तरह स्वतंत्र है। रेल की बंधी हुई पटरियां, जिन पर रेलगाड़ी के डिब्बे दौड़ते रहते हैं, वह गृहस्थ का ढंग है जीने का। गृहस्थ रेलगाड़ी की पटरियों पर दौड़ता रहता है।
और अक्सर तो कहीं नहीं पहुंचता, शंटिंग में ही होता है। कोई स्टेशन वगैरह कभी आता ही नहीं, शंटिंग ही चलती है। क्योंकि पत्नी इस तरफ जाती है, पति उस तरफ जाता है, बेटा उस तरफ जाता है; शंटिंग होती रहती है। धीरे-धीरे डिब्बे जीर्ण-जर्जर होकर वहीं गिर जाते हैं। कोई यात्रा कभी पूरी नहीं हो पाती।
और ठीक भी है, क्योंकि गृहस्थ जो है, वह पैसेंजर गाड़ी की तरह कम और मालगाड़ी की तरह ज्यादा है-गुड्स ट्रेन। तो गुड्स ट्रेन की शंटिंग आप देखते ही हैं, होती ही रहती है।
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