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सम्यक त्याग, निर्मल शक्ति और परम अनुशासन मुक्ति में प्रवेश
कसम खाने वाले सदा मुसीबत में पड़ जाते हैं, क्योंकि कसम कोई समझ नहीं है। समझदार आदमी कसम नहीं खाता। समझ काफी है, कसम की जरूरत नहीं है। गैर-समझदार आदमी समझ की कमी कसम से पूरी करने की कोशिश करता है । और जब समझ ही नहीं है, तो कसम खाकर समझ पैदा नहीं हो जाएगी।
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कसम तो खा ली थी। पहले ही दिन भोज था । बड़े बढ़िया, अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर पहुंचा था। और बेरा ने भोजन परोसते वक्त सब्जी का पूरा का पूरा बर्तन उसके कपड़ों पर गिरा दिया। आग जल गई भीतर, गालियां ओंठों पर आ गईं। लेकिन कसम खा चुका था, तो उसने कहा कि भाइयो, कोई गृहस्थ आदमी इस समय पर जो कहना जरूरी है, जरा इससे कहे। क्योंकि मैं तो कसम ले लिया हूं, जरा ऐसी बातें कहो, जो इस वक्त बिलकुल जरूरी हैं।
यही होने वाला है। क्योंकि कसमें क्या करेंगी, कसमें समझ नहीं हैं। नासमझ कसमें खाते हैं, संन्यासी व्रत नहीं लेता । यह बहुत हैरानी होगी सुनकर, संन्यासी व्रत नहीं लेता । संन्यासी समझ से ही जीता है। समझ ही उसका एकमात्र व्रत है । और जो समझ जाता है, जो समझ आ जाता है, वह विसर्जित हो जाता है।
परब्रह्म के साथ एकता के रस का स्वाद ही वे लेते हैं।
एक ही उनका स्वाद और एक ही उनका रस है । व्यक्तियों से नहीं है वह स्वाद । वस्तुओं से नहीं है वह स्वाद | वह रस व्यक्तियों से नहीं, वस्तुओं से नहीं। वह रस और स्वाद उनका सिर्फ परमात्मा से है। लेकिन वहां भी वे भय, मोह, शोक और क्रोध का संबंध नहीं बनाते। अब यह बहुत समझने जैसी बात है।
आमतौर से भक्त जिनको हम कहते हैं, वे परमात्मा से भी भय, मोह, शोक और क्रोध का संबंध निर्मित कर लेते हैं । परमात्मा तक से रूठ जाते हैं । परमात्मा उनकी मानकर चले, इसकी अपेक्षा हो जाती है। वे जैसा कहें, वैसा परमात्मा करे, इसकी भी अपेक्षा बन जाती है। परमात्मा पर भी नाराज हो सकते हैं। तब उन्होंने अपने सब रोगों को परमात्मा पर आरोपित कर लिया। वे रोगों से मुक्त नहीं हुए।
संन्यासी परमात्मा से कोई अपेक्षा नहीं करता । यही उसका संबंध बनता । परमात्मा जो करता है, उसके लिए राजी है। क्रोध नहीं करता कि इससे अन्यथा होना था । परमात्मा से भी मोह नहीं बनाता। नहीं तो कोई भी निमित्त मोह के लिए कारण बन जाता है।
एक संत के संबंध में मैंने सुना है। वे राम के भक्त थे । कृष्ण के मंदिर में गए, तो नमस्कार करने से इनकार कर दिया। और कहा कि जब तक धनुष-बाण हाथ में न लोगे, तब तक मैं सिर न झुकाऊंगा । भारी अजीब मोह हो गया ! यह मोह तो पागलपन हो गया । यह तो विक्षिप्तता हो गई। धनुष-बाण हाथ में हों, तो ही मेरा सिर झुकेगा। तब तो मेरे सिर झुकने में भी कंडीशन हो गई, शर्त हो गई कि लो धनुष-बाण हाथ रखो, नहीं तो मेरा सिर झुकने वाला नहीं। अब यह मेरा सिर ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया।
हम सबके मोह हैं। मस्जिद के सामने से हम ऐसे निकल जाते हैं, जैसे कुछ नहीं। मंदिर के सामने सिर झुका लेते हैं। मंदिर में भी फर्क हैं - अपने - अपने मंदिर हैं। अपने मंदिर के सामने सिर झुका लेते हैं, दूसरे के मंदिर के सामने ऐसे ही निकल जाते हैं। मोह वहां भी खड़ा है।
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