SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्वाण उपनिषद यह भी चाहता है कि मेरी मानकर चले। मानकर सिर्फ मंद-बुद्धि चल सकते हैं। अब बड़ी मुश्किल है। मंद-बुद्धि और प्रतिभा एक साथ नहीं हो सकती। मंद-बुद्धि होगा तो दुख देगा, प्रतिभाशाली होगा तो दुख देगा। यह खेल क्या है? संन्यासी इस सत्य को समझकर अपेक्षाएं करना बंद कर देता है। वह कहता है, अपेक्षाएं विरोधाभासी हैं, इसलिए मैं अपेक्षाएं नहीं करता। और अपेक्षाएं दूसरे से की जा रही हैं। दूसरा उनको पूरा करने के लिए बाध्य क्यों हो? दूसरा दूसरा है! और जब मैं अपेक्षा करता हूं, तो मैं दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा डालता हूं। जब भी मैं छोटी सी अपेक्षा भी-बिलकुल छोटी सी अपेक्षा, ऐसी जिसका कोई मतलब नहीं है कि रास्ते से निकलूं तो नमस्कार कर लो, इसका कोई मतलब नहीं है, जिसमें कुछ खर्च नहीं होता किसी का-इतनी सी अपेक्षा भी दूसरे की स्वतंत्रता पर बाधा है, हिंसा है, वायलेंस है। संन्यासी कहता है कि जब मैं स्वतंत्र होने को आतुर और उत्सुक हूं, तो सभी जीवन स्वतंत्र होने को आतुर और उत्सुक हैं। नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। अपेक्षा नहीं, तो शोक नहीं, दुख नहीं। अपेक्षा नहीं, तो संताप नहीं पैदा होता। शोक को छोड़ना हो, तो अपेक्षा की जड़ें छोड़ देनी पड़ती हैं, शोक छूट जाता है। जब भी क्रोध पैदा होता है मन में, तब ऐसा लगता है, दूसरा जिम्मेवार है। क्रोध का कारण, दूसरा जिम्मेवार है, ऐसी धारणा। __ मुल्ला नसरुद्दीन एक नई जगह नौकरी करने गया। इंटरव्यू हुआ। मालिक ने उसकी भेंट ली और कहा कि ध्यान रखो, तुम आदमी देखने से रिस्पांसिबल नहीं मालूम पड़ते, कुछ जिम्मेवार आदमी नहीं मालूम पड़ते तुम्हारे ढंग-डौल से। और मैंने अखबार में जो विज्ञापन दिया था, उसमें लिखा था कि इस पद के लिए बहुत रिस्पांसिबल, योग्य, जिम्मेवार, उत्तरदायित्व को समझने वाला आदमी चाहिए। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि इसीलिए तो मैंने यह दरखास्त दी। बिकाज व्हेनएवर एनीथिंग रांग हैपंस, आई एम आलवेज हेल्ड रिस्पांसिबल। कहीं कुछ गड़बड़ हो जाए, तो पच्चीस जगह नौकरी कर चुका, कोई भी गड़बड़ हो, जिम्मेवार सदा मैं ही सिद्ध होता है। और तमने लिखा कि जिम्मेवार आदमी की जरूरत है. तो मैं हाजिर हो गया। क्रोध का सूत्र क्या है? सदा दूसरा जिम्मेवार है। क्रोध का सूत्र यही है, सदा दूसरा जिम्मेवार है। क्रोध छोड़ना हो, तो समझना पड़े, सदा मैं ही जिम्मेवार हूं। फिर क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर क्रोध की जड़ें कट जाती हैं। तो संन्यासी कसम नहीं खाता कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। वह क्रोध के राज को, रहस्य को, उसकी जड़ों को समझ लेता है और मुक्त हो जाता है। मुक्त होने में कठिनाई नहीं है। लेकिन आप पुराने सूत्र पकड़े रखें और कसमें खाते चले जाएं, तो मुश्किल में पड़ेंगे। भीतर तो यही मानते रहें कि जिम्मेवार दूसरा है और ऊपर से कहें कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। यह नहीं होने वाला है। क्रोध भीतर बनेगा। रस्ते खोजेगा। और रस्ते ऐसे खोज सकता है...। एक ईसाई पादरी के बाबत मैंने सुना है। ईसाई पादरी ने कसम ली थी कि गालियां नहीं देगा, बुरे शब्द, अपशब्द नहीं बोलेगा। जिस दिन वह दीक्षित हुआ पादरी के पद पर, उसी दिन उसके स्वागत-समारोह में गांव में एक भोज हुआ। कसम तो खा ली थी कि गाली नहीं देगा। पहले ही दिन मुसीबत में पड़ा। 7226
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy