SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्वाण उपनिषद सूत्र में है। वह ऋषि कहता है, अगर शक्तियों का सम्यक उपयोग न हो, तो आदमी धीरे-धीरे परमात्मा के विपरीत हटता जाता है। और जब परमात्मा से विपरीत हटता है, तो रिक्तता का भाव होता है, खाली होता जाता है। एक दिन लगता है, खाली डब्बा रह गया, भीतर कुछ भी नहीं है। कुछ है ही नहीं। जो परमात्मा की तरफ चलता है, धीरे-धीरे भरता जाता है और एक दिन कहता है कि भीतर इतना भर गया है, इतना भर गया है कि अब कोई जगह न बची जिसे और भरना है। उसे पा लिया, जिसके आगे अब पाने के लिए भी कोई जगह नहीं है, रखने के लिए भी कोई जगह नहीं है। सब मिल गया। महावीर ने कहा है, एक को पा लेने से सब पा लिया जाता है। इससे उलटा भी होता है। एक को खोने से सब खो दिया जाता है। वह एक है परमात्मा । अगर उसकी तरफ हमारी पीठ है, तो आज नहीं कल हमें एम्पटीनेस घेर लेगी, खाली हम हो जाएंगे। धन कितना ही हो, फिर भरेगा नहीं। और यश कितना ही हो, फिर भरेगा नहीं। और महल कितने ही हों, पद कितने ही हों, ज्ञान कितना ही हो; फिर भरेगा नहीं, खाली ही हम होंगे। और अगर परमात्मा की तरफ मुंह हो, न हो ज्ञान, न हो त्याग, न हो पद, न हो धन; तो भी, तो भी सब भर जाता है। तो भी सब भर जाता है। उसकी तरफ नजर उठाते ही सब भर जाता है। लेकिन उसकी तरफ नजर उनकी ही उठती है, ऋषि कहता है, जो अपनी शक्तियों का सम्यक, ठीक-ठीक बुद्धिमानीपूर्वक उपयोग करते हैं। अद्वैत सदानंद ही उनका देव है। और ऋषि जिसकी पूजा के लिए कहते हैं, जिसकी श्रद्धा के लिए कहते हैं, वह है अद्वैत सदानंद, एक सदा ठहरने वाला आनंद । अपने अंतर की इंद्रियों का निग्रह ही उनका नियम है। अपने अंतर की इंद्रियों का निग्रह ही उनका नियम है। इसे थोड़ा सा समझ लेना जरूरी है। इंद्रियों के दो हिस्से हैं। एक तो बहिर-इंद्रिय है, आंख है, बाहर है। आंख को निकाल भी दें, तो भी देखने की वासना नहीं चली जाती। देखने की वासना अंतर - इंद्रिय है। आंख बहिर-इंद्रिय है। देखने की क्षमता बहिर - इंद्रिय है, देखने की वासना अंतर-इंद्रिय है। आंख के कारण आप नहीं देखते हैं, देखने की वासना के कारण आंख पैदा होती है। अब तो वैज्ञानिक भी इसको स्वीकार कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अगर अंधा आदमी देखने की वासना से बहुत भर जाए, तो अंगुलियों से भी देख सकता है, पैर के अंगूठों से भी देख सकता है। क्योंकि आंख में जो चमड़ी काम में आई है, वह चमड़ी पूरे शरीर पर वही है। क्वालिटेटिवली कोई फर्क नहीं है, गुणात्मक कोई फर्क नहीं है। आंख में जो चमड़ी है, वह वही है, जो पूरे शरीर पर है। आंख की चमड़ी के पीछे देखने की वासना ने हजारों-हजारों, लाखों-लाखों साल तक काम किया है। और वह चमड़ी पारदर्शी हो गई है, बस । कान के पीछे सुनने की वासना ने काम किया है और वह चमड़ी सुनने में समर्थ हो गई है। वे हड्डियां सुनने में समर्थ हो गई हैं। उन हड्डियों में कोई क्वालिटेटिव फर्क नहीं है। शरीर की सब हड्डियों जैसी हड्डियां हैं। और अभी तो बहुत प्रयोग हुए हैं, जिनसे यह सिद्ध हो सका है कि आदमी शरीर के और अंगों 214
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy