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निर्वाण उपनिषद
हैं। और जब आप विसर्जन को देख लेंगे, तो आप जान जाएंगे कि विसर्जन की जो प्रक्रिया है, उससे उलटी प्रक्रिया सर्जन की है।
बुद्ध एक दिन अपने भिक्षुओं के बीच सुबह जब बोलने गए, तो उनके हाथ में एक रेशम का रूमाल था। बैठकर उन्होंने उस पर पांच गांठें लगाईं । भिक्षु बड़े चिंतित हुए, क्योंकि बुद्ध कभी कुछ हाथ लेकर आते न थे। रेशम का रूमाल क्यों ले आए? और फिर बोलने की जगह बैठकर उस पर गांठें लगाने लगे! बड़ी उत्सुकता, बड़ी आतुरता हो गई। क्या कोई जादू दिखाने का खयाल है ? क्योंकि जादूगर रूमाल वगैरह लेकर आते हैं। बुद्ध को क्या रूमाल लेकर आने की बात थी ?
लेकिन बुद्ध शांति से, सन्नाटे में पांच गांठें लगा लिए और फिर उन्होंने कहा, भिक्षुओ, ये रूमाल में गांठें लग गईं। मैं तुमसे दो सवाल पूछना चाहता हूं। एक तो यह कि जब रूमाल में गांठें नहीं लगीं थीं तब के रूमाल में, और अब जब रूमाल में गांठें लग गई हैं अब के रूमाल में, क्या कोई फर्क है स्वरूपगत ?
एक भिक्षु ने कहा, स्वरूपगत तो फर्क बिलकुल नहीं है, रूमाल वही का वही है। जरा भी, इंचभर भी तो रूमाल के स्वरूप में फर्क नहीं है। लेकिन आप हमें फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। फर्क हो भी गया, क्योंकि तब रूमाल में गांठें न थीं और अब गांठें हैं। लेकिन फर्क बहुत ऊपरी है, क्योंकि गांठें रूमाल के स्वभाव पर नहीं लगतीं, केवल शरीर पर लगती हैं।
संसार और निर्वाण में इतना ही फर्क है। निर्वाण में भी वही स्वरूप होता है, जो संसार में । सिर्फ संसार में रूमाल पर पांच गांठें होती हैं।
बुद्ध ने कहा, तो भिक्षुओ, यह जो रूमाल है गांठ लगा हुआ, ऐसे ही तुम हो। तुममें और मुझमें बहुत फर्क नहीं। स्वरूप एक जैसा है। सिर्फ तुम पर कुछ गांठें लगी हैं।
बुद्ध ने कहा, इन गांठों को मैं खोलना चाहता हूं। और उस रूमाल को पकड़कर बुद्ध ने खींचा। स्वभावतः, खींचने से गांठें और मजबूत हो गईं। एक भिक्षु ने कहा, आप जो कर रहे हैं, इससे गांठें खुलेंगी नहीं, खुलना मुश्किल हो जाएगा। बुद्ध ने कहा, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक गांठों को ठीक से न समझ लिया जाए, तब तक खींचना खतरनाक है। हम सब गांठों को खींच रहे हैं बिना समझे कि गांठ कैसे लगी हैं।
एक भिक्षु से बुद्ध ने कहा, तो मैं क्या करूं? तो उस भिक्षु ने कहा, जानना जरूरी है कि गांठ कैसे लगी, तभी खोला जा सकता है। क्योंकि लगने का जो ढंग है, उससे विपरीत खुलने का ढंग होगा। बुद्ध ने कहा, गांठें अभी लगी हैं, इसलिए तुम्हारे खयाल में है कि कैसे लगीं, लेकिन गांठें अगर बहुत काल पहले लगी होतीं, तो तुम कैसे पता लगाते कि गांठें कैसे लगीं? लग चुकीं । तो फिर उस भिक्षु ने कहा, तब तो हम खोलकर ही पता लगाते। खोलने से पता लग जाएगा। क्योंकि खोलने का जो ढंग है, उसका उलटा ढंग लगने का होगा ।
तो आप इस फिक्र में न पड़ें कि यह मन कैसे पैदा हुआ, आप इस फिक्र में पड़ें कि यह मन कैसे चला जाए। और जिस क्षण चला जाएगा, उस दिन आप जान लेंगे उसी क्षण कि यह कैसे पैदा हुआ था। जो विसर्जन करता है, वही सर्जन करने वाला है। और जो विसर्जन कर सकता है, वह सर्जन कर सकता था। विसर्जन की जो प्रक्रिया है, उससे उलटी प्रक्रिया सर्जन की है।
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