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________________ निर्वाण उपनिषद सब अभिव्यक्ति विपरीत के साथ है, इसलिए चेतना मन को पैदा करती है। चेतना का ही काम है। चेतना ही बाहर जाती है। और बाहर भटक भटककर ही उसे पता चलता है कि बाहर कुछ नहीं है। तब चेतना भीतर वापस आती है। और ध्यान रहे, जो चेतना कभी बाहर नहीं गई थी उस चेतना में और जो चेतना बाहर भटककर भीतर आती है, रिचनेस का, समृद्धि का बहुत फर्क है। इसलिए जब पापी कभी पुण्यात्मा होता है, तो उसके पुण्य की जो गहराई है, वह साधारण आदमी पुण्य की गहराई नहीं होती, जो कभी पापी नहीं हुआ। क्योंकि पापी बहुत जानकर पुण्य तक पहुंचता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अच्छे आदमी की कोई जिंदगी नहीं होती। अगर आप नाटककारों से पूछें, उपन्यासकारों से पूछें, फिल्म - कथा लिखने वालों से पूछें, तो वे कहेंगे, अच्छे आदमी पर तो कोई कथा ही नहीं लिखी जा सकती। अगर आदमी बिलकुल अच्छा हो, तो कोरा सपाट होता है। रामायण में से राम को छोड़ने में बहुत असुविधा नहीं है, रावण को छोड़ने में सब कथा गड़बड़ हो जाती है। राम के बिना चल सकता है, रावण के बिना नहीं चल सकता है। कोई कितना ही कहे कि राम नायक हैं, जो कथा लिखना जानते हैं, वे कहेंगे, रावण नायक है, क्योंकि सारी कथा उसके इर्द-गिर्द घूमती है । और अगर राम भी प्रखर होकर प्रकट होते हैं, तो रावण के सहारे और रावण के कंधे पर। रावण के बिना राम भी सफेद दीवार पर खींची गई सफेद रेखा हो जाएंगे। वह काला ब्लैक बोर्ड तो रावण है। लेकिन स्कूल में शिक्षक जब काले ब्लैक बोर्ड पर लिखता है, तो बच्चे ब्लैक बोर्ड का विरोध नहीं करते। वे जानते हैं कि सफेद रेखा उसी पर उभरती है। लेकिन जब रावण के ब्लैक बोर्ड पर राम उभरते हैं, तो हम नासमझ विरोध करते हैं कि रावण नहीं होना चाहिए। रावण दुनिया से मिटा दो। जिस दिन आप रावण को दुनिया से मिटा देंगे, उस दिन राम तिरोहित हो जाएंगे। वह कहीं खोजे से नहीं मिलेंगे। जीवन विपरीत स्वरों के बीच एक सामंजस्य है। चेतना ही पैदा करती है मन को । चेतना ही विचार को पैदा करती है, ताकि निर्विचार को जान सके । परमात्मा ही संसार को बनाता है, ताकि स्वयं को अनुभव कर सके। यह आत्म-अन्वेषण की यात्रा है। इसमें भटकना जरूरी है। एक कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। एक गांव के बाहर एक आदमी उतरा अपने घोड़े से, झाड़ के पास बैठे नसरुद्दीन के सामने उसने हाथ में ली झोली पटकी, और कहा कि करोड़ों के हीरे-जवाहरात इस झोली में हैं। इसे मैं लेकर घूम रहा हूं गांव-गांव । मुझे कोई रत्तीभर भी सुख दे दे, तो मैं ये सब हीरे उसे सौंप दूं, लेकिन अब तक मुझे कोई रत्तीभर सुख नहीं दे पाया। नसरुद्दीन ने कहा, तुम बहुत दुखी हो ? उसने कहा, मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं हो सकता। तभी तो मैं रत्तीभर सुख के लिए करोड़ों के हीरे देने को तैयार हूं। नसरुद्दीन ने कहा, तुम ठीक जगह आ गए, बैठो। वह जब तक बैठा, तब तक नसरुद्दीन उसकी थैली लेकर भाग खड़ा हुआ। वह आदमी स्वभावतः नसरुद्दीन के पीछे भागा कि मैं लुट गया, मैं मर गया । यह आदमी डाकू है, यह लुटेरा है । किसने कहा कि यह फकीर है ! किसने कहा कि यह ज्ञानी है! लेकिन गांव के गली-कूचे नसरुद्दीन के परिचित थे। उसने काफी चक्कर खिलाए। पूरा गांव जग गया। सारा गांव दौड़ने लगा। करोड़ों का मामला था । और नसरुद्दीन आगे और वह धनपति छाती पीटता हुआ पीछे जार-जार चिल्ला रहा है कि मेरी जिंदगीभर की 202
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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