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________________ निर्वाण उपनिषद स्वतंत्रता यह भी है कि वह अचेतन हो सके। ध्यान रखें, अचेतन का अर्थ जड़ नहीं होता। अचेतन का अर्थ होता है, चेतन, जो कि सो गया है। चेतन, जो कि छिप गया है। यह चेतना की ही क्षमता है कि वह अचेतन हो सकती है। जड़ की यह क्षमता नहीं है। आप पत्थर से यह नहीं कह सकते हैं कि तू अचेतन है। जो चेतन नहीं हो सकता, वह अचेतन भी नहीं हो सकता। जो जाग नहीं सकता, वह सो भी नहीं सकता। और ध्यान रखें, जो सो भी नहीं सकता, वह जागेगा कैसे! चेतना की ही क्षमता है एक. अचेतन हो जाना। अचेतन का अर्थ चेतना का नाश नहीं है। अचेतन का अर्थ है, चेतना का प्रसुप्त हो जाना, छिप जाना, अप्रकट हो जाना। चेतना की मालकियत है यह कि चाहे तो प्रकट हो, और चाहे तो अप्रकट हो जाए। यही चेतना का स्वामित्व है। या कहें, यही चेतना की स्वतंत्रता है। अगर चेतना अचेतन होने को स्वतंत्र न हो, तो चेतना परतंत्र हो जाएगी। फिर आत्मा की कोई स्वतंत्रता न होगी। ___ इसे ऐसा समझें, अगर आपको बुरे होने की स्वतंत्रता ही न हो, तो आपके भले होने का अर्थ क्या होगा? अगर आपको बेईमान होने की स्वतंत्रता ही न हो, तो आपके ईमानदार होने का कोई अर्थ होता है? और जब भी हम किसी व्यक्ति को कहते हैं कि वह ईमानदार है, तो इसमें निहित है, इम्प्लायड है, कि वह चाहता तो बेईमान हो सकता था और नहीं हुआ। अगर हो ही न सकता हो बेईमान, तो ईमानदारी दो कौड़ी की हो जाती है। ईमानदारी का मूल्य बेईमान होने की क्षमता और संभावना में छिपा है। जीवन के शिखर छूने का मूल्य, जीवन की अंधेरी घाटियों में उतरने की भी हमारी क्षमता है, इसमें छिपा है। स्वर्ग पहंच जाना इसीलिए संभव है कि नर्क की सीढी भी हम पार कर सकते हैं। और प्रकाश इसीलिए पाने की आकांक्षा है कि हम अंधेरे में भी हो सकते हैं। ध्यान रहे, अगर आत्मा के लिए बुरा होने का उपाय ही न हो, तो आत्मा के भले होने में बिलकुल ही नपुंसकता, इंपोटेंसी हो जाएगी। विपरीत की सुविधा होनी चाहिए, और अगर चेतना को भी विपरीत की सुविधा नहीं है, तो चेतना गुलाम है। और गुलाम चेतना का क्या अर्थ होता है ? उससे तो अचेतन होना, जड़ होना बेहतर है। ___ यह जो हमारे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है, यह परम स्वतंत्र है, एब्सोल्यूट फ्रीडम। इसलिए शैतान तक होने का उपाय है और परमात्मा होने की भी सुविधा है। एक छोर से दूसरे छोर तक हम कहीं भी हो सकते हैं। और जहां भी हम हैं, वहां होना हमारी मजबूरी नहीं, हमारा निर्णय है, अवर ओन डिसीजन। अगर मजबूरी है, तो बात खत्म हो गई। अगर मैं पापी हूं और पापी होना मेरी मजबूरी है, पापी मुझे परमात्मा ने बनाया है, या मैं पुण्यात्मा हूं और पुण्यात्मा मुझे परमात्मा ने ही बनाया है, तो मैं पत्थर की तरह हो गया, मझमें चेतना न रही। मैं एक बनाई हई चीज हो गया. फिर मेरे कत्य के कोई दायित्व मेरे ऊपर नहीं हैं। ___ एक मुसलमान मित्र मुझे मिलने आए थे, कुछ दिन हुए। बहुत समझदार व्यक्ति हैं। वे मुझसे कहने लगे-वृद्ध हैं—वे मुझसे कहने लगे कि मैं बहुत लोगों से मिला हूं, बहुत साधु-संन्यासियों के पास गया हूं, लेकिन कोई हिंदू मुझे यह नहीं समझा सका कि आदमी पाप में क्यों गिरा। हिंदू, जैन या बौद्ध, इस भूमि पर पैदा हुए तीनों धर्म यह मानते हैं कि अपने कर्मों के कारण। उन मुसलमान मित्र का पूछना V 198
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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