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पांडरगगनम् महासिद्धांतः। परमात्मा ही उनका आकाश है, यही महासिद्धांत है।
एक आकाश, एक स्पेस तो बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं, जहां आकाश में पक्षी उड़ते, सूर्य जन्मते, पृथ्वियां विलुप्त होतीं। एक आकाश हमारे बाहर है। यह जो बाहर है हमारे आकाश, यह जो बाहर फैला है हमारे आकाश, यही अकेला आकाश नहीं है। दिस स्पेस इज़ नाट द ओनली स्पेस। एक और आकाश भी है। वह हमारे भीतर है। ___और जो आकाश हमारे बाहर फैला है, वह असीम है। वैज्ञानिक कहते हैं, उसकी कोई सीमा का पता नहीं चलता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, यह बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है-मल्टी डायमेंशनल इनफिनिटी है। बाहर के आकाश में चलना, उठना होता है, भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियाएं होती हैं, भीतर के आकाश में चैतन्य है। • तो जो बाहर के आकाश में ही खोजता रहेगा, वह कभी भी जीवन से मुलाकात न कर पाएगा। उसकी चेतना से कभी भेंट न होगी। उसका परमात्मा से कभी मिलन न होगा। ज्यादा से ज्यादा पदार्थ मिल सकता है बाहर, परमात्मा का स्थान तो भीतर का आकाश है, अंतराकाश है, इनर स्पेस है।
ऋषि कहता है, यही महासिद्धांत है। __ और तो सब सिद्धांत हैं, यह महासिद्धांत है कि अगर जीवन के सत्य को पाना हो, तो अंतर-आकाश में उसकी खोज करनी पड़ती है।
लेकिन हमें अंतर-आकाश का कोई भी, कोई भी अनुभव नहीं है। हमने कभी भीतर के आकाश में कोई उड़ान नहीं भरी। हमने भीतर के आकाश में एक चरण भी नहीं रखा है। हम भीतर की तरफ गए ही नहीं। हमारा सब जाना बाहर की तरफ है। हम जब भी जाते हैं, बाहर ही जाते हैं। उसके कुछ कारण हैं। __ एक मित्र ने प्रश्न पूछा है इस संबंध में। उन्होंने पूछा है, जब भीतर की, स्वरूप की स्थिति परम आनंद है, तो यह मन कहां से आ जाता है? जब भीतर नित्य आनंद का वास है, तो ये मन के विकार कैसे जन्म जाते हैं? ये कहां से अंकुरित हो जाते हैं? । __इस अंतर-आकाश के संबंध में ही उसे भी समझ लेना उपयोगी है। यह प्रश्न सदा ही साधक के मन में उठता है कि जब मेरा स्वभाव ही शुद्ध है, तो यह अशुद्धि कहां से आ जाती है? और जब मैं स्वभाव से ही अमृत हूं, तो यह मृत्यु कैसे घटित होती है? और जब भीतर कोई विकार ही नहीं है, निर्विकार, निराकार का आवास है सदा से, सदैव से, तो ये विकार के बादल कैसे घिर जाते हैं? कहां से इनका जन्म होता है ? कहां इनका उदगम है? ये अंकुरित कैसे होते हैं? इसे समझने के लिए थोड़ी सी गहराई में जाना पड़े।
पहली बात तो यह समझनी पड़े कि चेतना, जहां भी चेतना है, वहां चेतना की स्वतंत्रताओं में एक