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निर्वाण उपनिषद
देना। जमीन दिखाई पड़ रही है।
मन सब भांति के सहारे देता है। जो मन से रहित हो जाते हैं, वे ही निरालंब हो पाते हैं। वे कहते हैं, अब परमात्मा ही है। अब वह जो करे ठीक। अब अपनी तरफ से करने को कुछ नहीं बचता।
और जैसे निनाद करती अमृत-सरिता बहती है, ऐसे ही उनके जीवन की सब क्रियाएं हो जाती हैं।
जैसे निनाद करती हुई गंगा उतरती है हिमालय से-गीत गाती हुई, नाचती, आनंदमग्न, जैसे अपने -प्रियतम से मिलने जाती हो, बूंघर बंधे उसके पैरों में, छाती में उसके गीत, ऐसा ही उनका सारा जीवन है। आनंद, अमृत के किल्लोल करता हुआ। उनका उठना, उनका बैठना सब प्रभु-मिलन है। उनका चलना, उनका बोलना, उनका चुप होना, सब प्रभु-मिलन है। उनका होना एक अमृत की सरिता है, जो किल्लोल करती, आनंद के गीत गाती सागर की ओर भागती रहती है।
आज इतना ही।
अब हम ध्यान में उतरें।
दूर-दूर फैल जाएं। दूर-दूर फैल जाएं! दूर-दूर फैल जाएं, ताकि किसी को किसी का धक्का न लगे। पहले से खयाल कर लें, पीछे अड़चन होती है, आपको ही अड़चन होती है। दूर-दूर फैल जाएं। पूरे ग्राउंड का उपयोग करना है, दूर-दूर फैल जाएं। मेरी आवाज आप तक पहुंचेगी, इसलिए कोई पास होने की जरूरत नहीं है।
आंख पर पट्टियां बांध लेनी हैं। आंख पर पट्टियां बांध लें, दूर-दूर फैल जाएं। अपनी जगह बना । लें। आज तो बहुत जोर से होगा ध्यान, इसलिए काफी जगह बना लें।
शुरू करें!
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