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निर्वाण उपनिषद
उनका शरीर निर्मल, निरालंब उनका आसन है।
और जिसका मन शांत हो जाए, मन अ-मन हो जाए, उसका शरीर बड़ा निर्मल हो जाता है। क्योंकि शरीर में सब मल मन से आता है। इसे थोड़ा खयाल में ले लें। शरीर बिलकुल स्वच्छ चीज है। शरीर में कोई मल नहीं है। शरीर में जो भी विकार आते हैं, वे मन से आते हैं। लेकिन हम बड़े होशियार हैं। हम कहते हैं कि शरीर हममें विकार पैदा करवाता है।
नहीं, गलत है यह बात। शरीर विकार पैदा नहीं करवाता। विकार तो मन शरीर में डालता है। हां, शरीर सहयोग देता है। क्योंकि शरीर आपका सेवक है। आप जो चाहते हैं उससे...। आप कहते हैं, चोरी करनी है, तो पैर खजाने की तरफ चल पड़ते हैं। आप कहते हैं, प्रार्थना करनी है, पैर मंदिर की तरफ चल पड़ते हैं। न तो पैरों का आग्रह है कि हम चोरी करने जाएंगे, न पैरों का आग्रह है कि हम प्रार्थना करने जाएंगे। पैरों का कोई आग्रह ही नहीं है। अगर आप कामवासना में उत्सुक होते हैं, शरीर की ग्रंथियां कामवासना के लिए तैयार हो जाती हैं। अगर आप ब्रह्म की तरफ यात्रा करते हैं, शरीर की वे ही ग्रंथियां ब्रह्म-यात्रा के लिए, ब्रह्मचर्य के लिए तैयार हो जाती हैं। __ शरीर को कोई भी आग्रह नहीं है। शरीर बिलकुल तटस्थ शक्ति है—ऐब्सल्यूटली न्यूट्रल। जो भी होता है, वह मन से होता है।
इसलिए अ-मन के बाद ऋषि कहता है, शरीर उनका निर्मल है। क्योंकि जब मन न बचा, तो शरीर में कौन सा पाप बच जाएगा। शरीर ने कोई पाप कभी किया ही नहीं है। सब पाप मन के हैं। शरीर ने कोई पुण्य भी नहीं किया। ध्यान रखना, सब पुण्य मन के हैं। शरीर ने न शुभ किया है, न अशुभ किया है। लेकिन शरीर को बड़े दंड भोगने पड़ते हैं अकारण। और हम शरीर को ही जिम्मेवार ठहराते हैं। .
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन पर चोरी का एक मुकदमा चला। उसके वकील ने बड़ी जिरह की। मुल्ला तो चुप ही खड़ा रहा। आखिर में वकील ने एक दलील दी और उसने मजिस्ट्रेट को कहा कि आप यह तो मानेंगे कि मेरा मुवक्किल, पूरा का पूरा, चोरी के लिए जिम्मेवार नहीं है, सिर्फ उसका दायां हाथ जिम्मेवार है। यह निकलता था खिड़की के पास से और खिड़की में कोई चीज रखी दिखाई पड़ गई। दायां हाथ बढ़ा और उसने खिड़की से चीज निकाल ली। इसके पैरों का तो कोई कसूर नहीं है। मजिस्ट्रेट ने कहा कि यह बात तो तर्कयुक्त है। और वकील ने कहा कि आप पूरे मुल्ला नसरुद्दीन को दो साल की सजा दे रहे हैं, यह अन्याय है। सिर्फ इसके दाएं हाथ को सजा मिलनी चाहिए। मजिस्ट्रेट ने कहा, यह बात भी ठीक है। लेकिन वह भी होशियार आदमी था। उसने कहा, ठीक है। तो हम तुम पर छोड़ते हैं। हम सिर्फ दाएं हाथ को दो साल की सजा देते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन दाएं हाथ के साथ जेल में रहना चाहे रहे, न रहना चाहे न रहे। तत्काल नसरुद्दीन ने दायां हाथ निकालकर टेबिल पर रख दिया और दरवाजे के बाहर हो गया। वह लकड़ी का हाथ था।
मन कुछ करे, तो हमारा मन यह भी कहता है कि जिम्मेवार वह नहीं है। शरीर पर जिम्मेवारी ठहराता है। जो अ-मन में पहुंच गए, उनका शरीर निर्मल हो जाता है, स्वच्छ जल की भांति। शरीर बहुत ही निर्मल है। मन ही सारा विकार पैदा करता है।
निर्मल उनका शरीर, निरालंब उनका आसन है।
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