SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म- आलंबन नहीं है, लेकिन रेस्तरां दिखाई पड़ गया। मन कहता है, भूख लगी है। पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ने लगते हैं। पूछते भी नहीं अपने से कि भूख तो जरा भी न लगी थी, जब तक यह बोर्ड नहीं दिखाई पड़ा था। यह बोर्ड दिखाई पड़ने से भूख लगती है ! यह मन है । मन से भूख का कोई संबंध नहीं है, स्वाद की आकांक्षा है। मन को प्रयोजन नहीं है शरीर से, मन को स्वाद से प्रयोजन है। तो भूख तो बिलकुल नहीं लगी थी, लेकिन इसको देखकर भूख लग गई। यह भूख झूठी है। अब आप अगर पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ाते हैं, तो मन को आप बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं। अंकुशो मार्गः। सोच से, विवेक से खड़े होकर ठहर जाएं एक क्षण । भीतर खोजें, भूख है? एक क्षण भी अगर रुक सकें, तो रेस्तरां में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि मन कितना ही शक्तिशाली दिखाई पड़े, बहुत निर्बल है विवेक के सामने। लेकिन विवेक हो ही न, तो फिर मन बहुत सबल है। जैसे अंधेरा कितना ही हो, एक छोटा सा दीया पर्याप्त है। हां, दीया हो ही न, तो अंधेरा बहुत सघन है। एक क्षण के लिए भी विवेक, तो पैर ठहर जाएंगे। शरीर में कहीं कोई कामवासना की लहर न थी, एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई, या सुंदर पुरुष दिखाई पड़ गया और लहर उठ गई । यह मन है । इसलिए आदमी को छोड़कर इस पृथ्वी पर कोई भी जानवर सेक्सुअलिटी, कामुकता से पीड़ित नहीं है । कामवासना है, कामुकता नहीं है। सेक्स है, सेक्सुअलिटी नहीं है। इसलिए मनुष्य को छोड़कर सभी जानवरों का सेक्स पीरिआडिकल है। उसकी एक अवस्था है। वर्ष में महीने, दो महीने, तीन महीने काम आता है, बाकी नौ महीने काम से रिक्त हो जाते हैं। लेकिन आदमी चौबीस घंटे कामुक है— चौबीस घंटे, तीन सौ पैंसठ दिन ! और दुखी होता है कि साल में तीन सौ पैंसठ दिन क्यों होते हैं! थोड़े ज्यादा हो सकते थे, ऐसी इतनी कृपणता की क्या जरूरत थी ? क्या बात क्या होगी ? मनुष्य अकेला कामवासना को मन से जी रहा है, शरीर से नहीं। शरीर से सारे पशु जी रहे हैं, पौधे जी रहे हैं, वृक्ष जी रहे हैं, सारी प्रकृति जी रही है, मनुष्य मन से भी जी रहा है। तो कामवासना तो प्राकृतिक है, लेकिन कामुकता विकृति है । कामवासना से ऊपर उठ जाना तो परम क्रांति है। लेकिन आदमी कामवासना से भी नीचे गिर गया है, वह कामुकता में है । सेक्स से भी नीचे, सेक्सुअलिटी में है । मन है। तो जब एक सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष को देखकर मन में कामवासना जगने लगती है, तब एक क्षण खड़े हो जाना और कहना कि यह बायलाजिकल है, यह कहीं कोई जैविक-प्राण की कोई गति है या मन काही खेल है ? मन का ही खेल है। और जहां-जहां मन का खेल दिखे, डोंट कोआपरेट विद इट, नान - कोआपरेशन विल डू। सहयोग न करें । असहयोग। सिर्फ खड़े रह जाएं और कहें कि यह मन की बात है। एकदम गिर जाएगी। और ऐसे मन क्षीण होगा, नहीं तो सहयोग से मन बढ़ता चला जाएगा। बैठे हैं खाली । मन बेकार के विचार कर रहा है, जिनसे कुछ लेना-देना नहीं; और आप उसमें भी सहयोग दिए चले जा रहे हैं। रुकें और कहें कि इस सबकी क्या जरूरत है? यह सब मैं क्या कर रहा हूं? यह कैसा पागलपन है, जो मेरे भीतर मैं ही चलाता हूं? असहयोग — और मन धीरे-धीरे विसर्जित होता है और अगर चौबीस घंटे असहयोग चले और उसके साथ ध्यान हो, तो अ-मन में गति हो जाती है। 191
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy